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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? संजम-विराय-जोगणिरोहाणमक्कमेण सरूवलाहो ण होदि चेवेत्ति ण पञ्चवहादुं जुत्तं; तेसिमक्कमवुत्तीए विरोहाभावादो, सम्मत्त-संजम-वइरग्ग-जोगणिरोहाणमक्कमेण पउत्तिदंसणादो च । ण च दिढे अणुववण्णदा णाम । असंपुण्णाणमक्कमवुत्ती दीसइ ण संपुप्रणाणं चे; ण; अक्कमेण वट्टमाणाणं सयलत्तकारणसाणिज्झे संते तदविरोहादो । संवरो सव्वकालं संपुण्णो ण होदि चेवेत्ति ण वोत्तुं जुत्तं; वेड्ढमाणेसु कस्स वि कत्थ वि णियमेण सँगसगुक्कस्सावत्थावत्तिदंसणादो । संवरो वि वड्ढमाणो उपलब्भए तदो कत्थ वि संपुण्णेण होदव्वं बाहुज्झियतालरुक्खेणेव । आसवो वि कहिं पि णिम्मूलदो विणस्सेज्ज,
रहती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहना युक्तिसे बाधित है, अर्थात् सकल प्रतिपक्षी कारणके होने पर कर्मका विनाश अवश्य होता है, अतः आस्रवके प्रतिपक्षी संवरके होने पर भी आस्रवका चालू रहना युक्तिसे बाधित है। सकल संवररूप सम्यक्त्व, संयम, वैराग्य और योगनिरोध इनका एक साथ स्वरूपलाभ नहीं होता है अर्थात् ये धर्म आत्मामें एक साथ नहीं रहते हैं, ऐसा मानना भी युक्त नहीं है, क्योंकि इनकी युगपत् वृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता है। दूसरे, सम्यक्त्व, संयम, वैराग्य और योगनिरोध इनकी एक साथ प्रवृत्ति देखी भी जाती है, और देखी हुई वस्तुमें 'यह नहीं बन सकता है' ऐसा कहना युक्त नहीं है।
शंका-संवरके पूर्णताको नहीं प्राप्त हुए सम्यक्त्व आदि सभी कारणोंकी वृत्ति एक साथ भले ही देखी जाओ किन्तु परिपूर्णताको प्राप्त हुए उन सम्यक्त्वादिकी वृत्ति एक साथ नहीं देखी जाती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जो सम्यक्त्वादिक अपरिपूर्ण अवस्थामें एकसाथ रह सकते हैं वे परिपूर्णताके कारण मिल जाने पर परिपूर्ण होकर भी अक्रमसे रह सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
यदि कहा जाय कि संवर सर्वकालमें अर्थात् कभी भी परिपूर्ण नहीं होता है, सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि जो वर्द्धमान हैं उनमेंसे कोई भी कहीं भी नियमसे अपनी अपनी उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त होता हुआ देखा जाता है। यतः संवर भी एक हाथ प्रमाण तालवृक्षके समान वृद्धिको प्राप्त होता हुआ पाया जाता है, इसलिये किसी भी आत्मामें उसे परिपूर्ण होना ही चाहिये । तथा जिसप्रकार खानसे निकले हुए स्वर्णपाषाणका
(१) "स्वभावेऽध्यक्षतः सिद्धे परैः पर्यनुयुज्यते । तत्रोत्तरमिदं वाच्यं न दृष्टेऽनुपपन्नता ॥"-प्रमाणवातिकालं० लि० पृ० ६८ । (२) वट्टमा-अ०, आ० । (३) "दोषावरणयोर्हानिनिशेषास्त्यतिशायनात् ।" -आप्तमी० श्लो० ४ । 'शुद्धिः प्रकर्षमायाति परमं क्वचिदात्मनि । प्रकृष्यमाणवृद्धित्वात् कनकादिविवृद्धिवत् ॥"-त० श्लो० पृ० ३१५ । आप्तप० श्लो० ११२ । न्यायकुमु० पृ० ८११ टि० १०॥ तुलना-“अस्ति काष्ठाप्राप्तिः सर्वज्ञबीजस्य सातिशयत्वात् परिमाणवत् ।"-योगभा० ११२५। (४) विवट्टमा-अ०, आ० ।
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