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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती माणो दीसइ त्ति चे; ण; घडावत्थाए खप्पराणं पडावत्थाए तंतूणं च अणुवलंभादो । घडस्स पद्धंसाभावो खप्पराणि पडस्स पागभावो तंतवो, ण ते घड-पडकालेसु संभवंति; घडपडाणमभावप्पसंगादो।
३३. णाणुमाणमवि तग्गाहयं तदविणाभाविलिंगाणुवलंभादो, समवायासिद्धीए अवयवावय विसमूहसिद्धलिंगाभावादो च । ण च अत्थावत्तिगमो समवाओ; अणुमाणपुधभूदत्थावत्तीए अभावादो । ण चागमगम्मो; वादि-पडिवादिपसिद्धगागमाभावादो। ण च कज्जुप्पत्तिपंदेसे पुव्वं समवाओ अत्थि; संबंधीहि विणा संबंधस्स अत्थित्तविरोहादो। ण च अण्णत्थ संतो आगच्छदि; किरियाए विरहियस्स आगमउत्पन्न होता हुआ देखा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि घटरूप अवस्थामें कपालोंकी और पटरूप अवस्थामें तन्तुओंकी उपलब्धि नहीं होती है । इसका कारण यह है कि घटका प्रध्वंसाभाव कपाल हैं और पटका प्रागभाव तन्तु हैं । अर्थात् घट के फूटने पर कपाल होते हैं और पट बननेसे पहले तन्तु होते हैं । वे कपाल और तन्तु घट और पटरूप कार्यके समय संभव नहीं हैं। यदि घट और पटरूप कार्यकालमें भी कपालोंका और तन्तुओंका सद्भाव मान लिया जाय तो घट और पटके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। इसप्रकार प्रत्यक्ष तो समवायका ग्राहक हो नहीं सकता है।
३३. यदि कहा जाय कि अनुमान प्रमाण समवायका ग्राहक है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि समवायका अविनाभावी कोई लिंग नहीं पाया जाता है। तथा समवायकी सिद्धि न होनेसे अवयव-अवयवीका समूहरूप प्रसिद्ध लिंग भी नहीं पाया जाता है, अतः अनुमान प्रमाणसे भी समवायकी सिद्धि नहीं होती है।
यदि कहा जाय कि अर्थापत्ति प्रमाणसे समवायका ज्ञान हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थापत्ति अनुमान प्रमाणसे पृथग्भूत कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है; इसलिये अर्थापत्तिसे भी समवायकी सिद्धि नहीं होती है।
___ यदि कहा जाय कि आगम प्रमाणसे समवायका ज्ञान होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिसे वादी और प्रतिवादी दोनों मानते हों, ऐसा कोई एक आगम भी नहीं है, अतः आगम प्रमाणसे भी समवायकी सिद्धि नहीं होती है।
___ यदि कहा जाय कि घट, पटरूप कार्यके उत्पत्ति-प्रदेशमें कार्यके उत्पन्न होनेसे पहले समवाय रहता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि संबन्धियोंके बिना संबन्धका अस्तित्व स्वीकार कर लेनेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि समवाय कार्योत्पत्तिके
(१) घडादव्वाए अ०, आ० । (२)-विसम्मोहिसि--स० । (३) अट्टावत्ति-अ०, आ० । (४) तुलना-"उपमानार्थापत्त्यादीनामत्रैवान्तर्भावात्"-सर्वा० १११। त० भा० १११२ । "अर्थापत्तिरनुमानात् प्रमाणान्तरं न वेति किनश्चिन्तया सर्वस्य परोक्षेऽन्तर्भावात्।"-लघी० स्व० श्लो० २१ । अष्टश०, अष्टसहक पृ० २८१ । (५)-पदेसपुव्वं अ०, आ० ।
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