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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती ? ६३५. ण चाजीवादो जीवस्सुप्पत्ती; दव्वस्सेअंतेण उप्पत्तिविरोहादो। ण च जीवस्स दव्वत्तमसिद्ध मज्झावत्थाए अक्कमेण दव्वत्ताविणाभावितिलक्खणत्तुवलंभादो । जीवदव्वस्स इंदिएहितो उप्पत्ती मा होउ णाम, किंतु तत्तो णाणमुप्पज्जदि ति चे; ण; किया जा सकता है अन्यथा नहीं, अत: सर्व पदार्थस्थित महासत्ताकी अवान्तर सत्ता प्रतिपक्ष है। प्रतिनियत एकरूप सत्ताके द्वारा ही वस्तुओंका प्रतिनियत स्वरूप पाया जाता है, अतः प्रतिनियत सत्ता सविश्वरूप सत्ताकी प्रतिपक्ष है। प्रत्येक पर्यायमें रहनेवाली सत्ताओंके द्वारा ही पर्यायें अनन्तताको प्राप्त होती हैं, अतः एक पर्यायमें स्थित सत्ता अनन्त पर्यायात्मक सत्ताकी प्रतिपक्ष है। इससे निश्चित होता है कि पदार्थ अपने प्रतिपक्ष सहित है। इसीप्रकार चेतन और अचेतन पदार्थोमें भी समझ लेना चाहिये।
६३५. यदि कहा जाय कि अजीवसे जीवकी उत्पत्ति होती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यकी सर्वथा उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि जीवका द्रव्यपना किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मध्यम अवस्थामें द्रव्यत्वके अविनाभावी उत्पाद, व्यय और ध्रुवरूप त्रिलक्षणत्वकी युगपत् उपलब्धि होनेसे जीवमें द्रव्यपना सिद्ध ही है।
विशेषार्थ-चार्वाक अजीवसे जीवकी उत्पति मानता है। उसका कहना है कि आद्य चैतन्य पृथिवी आदि भूतचतुष्टयसे उत्पन्न होता है। अनन्तर मरण तक चैतन्यकी धारा प्रवाहित होती रहती है । और इसीलिये उसने परलोक आदिका भी निषेध किया है। पर विचार करने पर उसका यह कथन युक्तियुक्त प्रतिभासित नहीं होता है, क्योंकि जिसप्रकार मध्यम अवस्थाके अर्थात् जवानीके चैतन्यमें अनन्तर पूर्ववर्ती बचपनके चैतन्यका विनाश, जवानीके चैतन्यका उत्पाद और चैतन्य सामान्यकी स्थिति इसप्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रुवरूप विलक्षणत्वकी एक साथ उपलब्धि होती है, उसीप्रकार जन्मके प्रथम समयका चैतन्य भी विलक्षणात्मक ही सिद्ध होता है। प्रथम चैतन्यको त्रिलक्षणात्मक माने बिना मध्यम अवस्थाके चैतन्य के समान उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, अतःजन्मके प्रथम क्षणके चैतन्यमें भी जन्मान्तरके चैतन्यविशेषका विनाश, प्रथम समयवर्ती चैतन्य विशेषका उत्पाद और चैतन्य सामान्यकी स्थिति मान लेना चाहिये । अतःजीवकी उत्पत्ति अजीव पूर्वक सिद्ध न होकर जन्मान्तरके चैतन्यपूर्वक ही सिद्ध होती है । इसतरह जीव स्वतंत्र द्रव्य है यह सिद्ध हो जाता है।
शंका-इन्द्रियोंसे जीव द्रव्यकी उत्पत्ति मत होओ, किन्तु उनसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है यह तो मान ही लेना चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जीवसे अतिरिक्त ज्ञान नहीं पाया जाता है, इसलिये इन्द्रियोंसे ज्ञान उत्पन्न होता है ऐसा मान लेने पर उनसे जीवकी भी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है।
(१) "उप्पत्तीव विणासो दव्वस्स य पत्थि अत्थि सब्भावो । विगमुप्पादधुवत्तं करेंति 'तस्सेव पज्जाया॥"-पञ्चा० गा ११० । “एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो।"-पञ्चा० गा०१९ ।
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