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गा० १]
कम्मसरूववियारो . असिद्धो; बाल-जोव्वण-रायादिपज्जायाणं विणासण्णहाणुववत्तीए तविणाससिद्धीदो। कम्ममकट्टिमं किण्ण जायदे ? ण अकट्टिमस्स विणासाणुववत्तीदो। तम्हा कम्मेण कट्टिमेण चेव होदव्वं ।
६३६. तं पि मुंत्तं चेव । तं कथं णव्वदे? मुत्तोसहसंबंधेण परिणामंतरगमणण्णहाणुववत्तीदो। ण च परिणामंतरगमणमसिद्धं तस्स तेण विणा जर-कुछ-क्खयादीणं विणासाणुववत्तीए परिणामंतरगमणसिद्धीदो ।
४०.तं च कम्मं जीवसंबद्धं चेव । तं कुदो णव्वदे ? मुत्तेण सरीरेण कम्मकज्जेण जीवस्स संबंधण्णहाणुववत्तीदो। कम्मेहिंतो पुधभूदो जीवो किण्ण इच्छिज्जदे ? ण; कम्मेइस अन्यथानुपपत्तिके बलसे कर्म भी सहेतुक हैं यह जाना जाता है। यदि कहा जाय कि कर्मोंका विनाश किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मोंके कार्यभूत बाल, यौवन और राजा आदि पर्यायोंका विनाश कर्मोंका विनाश हुए बिना बन नहीं सकता है, इसलिये कर्मोंका विनाश सिद्ध है।
शंका-कर्म अकृत्रिम क्यों नहीं हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि अकृत्रिम पदार्थका विनाश नहीं बन सकता है, इसलिये कर्मको कृत्रिम ही होना चाहिए।
$३६. कृत्रिम होते हुए भी कर्म मूर्त ही है। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि कर्म मूर्त ही है ?
समाधान-यदि कर्मको मूर्त न माना जाय तो मूर्त औषधिके संबन्धसे परिणामान्तरकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अर्थात् रुग्णावस्थामें औषधिका सेवन करनेसे रोगके कारणभूत कर्मोमें जो उपशान्ति बगैरह देखी जाती है वह नहीं बन सकती है, इससे मालूम पड़ता है कि कर्म मूर्त ही है।
___यदि कहा जाय कि मूर्त औषधिके सम्बन्धसे रोगके कारणभूत कर्ममें परिणामान्तरकी प्राप्ति किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, सो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परिणामान्तरकी प्राप्तिके बिना ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदि रोगोंका विनाश बन नहीं सकता है, इसलिये कर्ममें परिणामान्तरकी प्राप्ति होती है यह सिद्ध हो जाता है।
$ ४०. इसप्रकार ऊपर जो कर्म सिद्ध कर आये हैं वह जीवसे संबद्ध ही है। शंका-कर्म जीवसे संबद्ध ही है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-यदि कर्मको जीवसे संबद्ध न माना जाय तो कर्मके कार्यरूप मूर्त शरीरसे
(१)-मकिटि-अ०, आ०, । (२) "तदपि पौद्गलिकमेव तद्विपाकस्य मूर्तिमत्सम्बन्धनिमित्तत्वात्। दृश्यते हि ब्रीह्यादीनामुदकादिद्रव्यसम्बन्धप्रापितपरिपाकानां पौद्गलिकत्वम्, तथा कार्मणमपि गुडकण्टकादिमूर्तिमद्रव्योपनिपाते सति विपच्यमानत्वात् पौद्गलिकमित्यवसेयम्।"-सर्वार्थ०, राजवा० ५।१९। न्यायकुमु० पृ० ८१०। (३)-कुक्कक्ख-सा०, अ०, आ०। (४) संबंधस्सण्ण-स०, ता०, आ० ।
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