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गा० ]
केवलणाणसिद्धी उप्पज्जमाणस्स केवलणाणंसस्स केवलणाणत्तं फिट्टदि; पमेयवसेण परियत्तमाणसिद्धजीवणाणंसाणं पि केवलणाणत्ताभावप्पसंगादो। ण च संसारावत्थाए केवलणाणंसो इंदियदुवारेणेव उप्पज्जदि ति णियमो; तेहि विणा वि सुदणाणुप्पत्तिदसणादो। ण मदिणाणपुव्वं चेव सुदणाणं; सुदणाणादो वि सुदणाणुप्पत्तिदंसणादो। ण च ववहियं कारणं; अणवत्थाप्पसंगादो। ण च इंदिएहिंतो चेव जीवे णाणमुप्पज्जदि अपगुणकी अपेक्षा नित्यत्व और पर्यायकी अपेक्षा अनित्यत्व धर्म बन जाता है। इसप्रकार ज्ञानके सामान्यरूपसे नित्य और विशेषरूपसे अनित्य सिद्ध हो जाने पर अपने मतिज्ञानादि विशेषोंको छोड़कर ज्ञानसामान्य सर्वथा स्वतत्र वस्तु है यह नहीं कहा जा सकता है। किन्तु यहाँ यही समझना चाहिये कि मतिज्ञानादि अनेक अवस्थाओंमें जो ज्ञानरूपसे व्याप्त रहता है वही तद्भावलक्षण ज्ञानसामान्य है और मतिज्ञानादिरूप विशेष अवस्थाएँ ज्ञानविशेष हैं। ये दोनों एक दूसरेको छोड़कर सर्वथा स्वतन्त्र नहीं रहते हैं। तथा आत्मा भी इन अवस्थाओंके द्वारा ही परिवर्तन करता है। स्वयं वह न उत्पन्न ही होता है और न मरता ही है।
यदि कहा जाय कि केवलज्ञानका अंश ज्ञानविशेषरूपसे उत्पन्न होता है, इसलिये उसका केवलज्ञानत्व ही नष्ट हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रमेयके निमित्तसे परिवर्तन करनेवाले सिद्ध जीवोंके ज्ञानांशोंको भी केवलज्ञानत्वके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् यदि केवलज्ञानके अंश मतिज्ञानादि ज्ञानविशेषरूपसे उत्पन्न होते हैं, इसलिये उनमें केवलज्ञानत्व नहीं माना जा सकता है तो प्रमेयके निमित्तसे सिद्ध जीवोंके भी ज्ञानांशोंमें परिवर्तन देखा जाता है अतः उन ज्ञानांशोंमें भी केवलज्ञानत्व नहीं बनेगा ।
यदि कहा जाय कि संसार अवस्थामें केवलज्ञानका अंश इन्द्रियद्वारा ही उत्पन्न होता है ऐसा नियम है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियोंके बिना भी श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है । यदि कहा जाय कि मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है, अतः परंपरासे श्रुतज्ञान भी इन्द्रियपूर्वक ही सिद्ध होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि श्रुतज्ञानसे भी श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है । अर्थात् जब 'घट' इसप्रकारके शब्दको सुन कर घट पदार्थका ज्ञान होता है और उससे जलधारण आदि घटसंबन्धी दूसरे कार्योंका ज्ञान होता है तब श्रुतज्ञानसे भी श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है जिसमें इन्द्रियाँ कारण नहीं पड़ती हैं । अतः संसार अवस्थामें ज्ञान इन्द्रियों द्वारा ही उत्पन्न होता है ऐसा एकान्तसे नहीं कहा जा सकता है। यदि कहा जाय कि यद्यपि मतिज्ञान आद्य श्रुतसे व्यवहित हो जाता है फिर भी वह द्वितीय श्रुतकी उत्पत्तिमें कारण है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहितको कारण मानने पर अनवस्था अर्थात् कार्यकारणभावकी अव्यवस्थाका प्रसंग प्राप्त होता है। थोड़ी देरको यदि यावत् श्रुतको मतिज्ञानपूर्वक मान भी लें तो भी इन्द्रियोंसे ही जीवमें ज्ञान उत्पन्न होता है, यह कहना ठीक प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर अपर्याप्त कालमें इन्द्रियोंका अभाव होनेसे
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