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गा० १]
णामणिरूवणं दीहणासो लंबकण्णो इच्चेवमादीणि णामाणि उवचयपदाणि, सरीरे उवचिदमवयवमवेक्खिय एदेसिं णामाणं पउत्तिदंसणादो। छिण्णकण्णो छिण्णणासो काणो कुंठो ( टो) खंजो बहिरो इच्चाईणि णामाणि अवचयपदाणि, सरीरावयवविगलत्तमवेक्खिय एदेसिं णामाणं पउत्तिदसणादो।
६२५. पाधण्णपदणामाणं कथं तब्भावो ? बलाए (लाहाए) काए च बहुसु वण्णेसु संतेसु धवला बलाहा कालो काओ त्ति जो णामणिदेसो सो गोण्णपदे णिवददि,गुणमुहेण दव्वम्मि पउत्तिदंसणादो। कयंबंबणिवादिअणेगेसु रुक्खेसु तत्थ संतेसु जो एगेण रुक्खेण किंबवणमिदि णिद्देसो सो आदाणपदे णिवददि; वणेणात्तरुक्खसंबंधेणेदस्स पउत्तिदसणादो । दैव्व-खेत्त-काल-भाव-संजोयपदाणि रायासिधणुहर-सुरलोयणयर
श्लीपदी, गलगण्ड, दीर्घनासा और लम्बकर्ण इत्यादिक नाम उपचयपद हैं, क्योंकि शरीरमें बढ़े हुए अवयवकी अपेक्षासे इन नामोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है । अर्थात् श्लीपद रोगसे जिसका पैर फूल जाता है उसे श्लीपदी कहते हैं । इसीतरह जिसके गलेमें गण्डमाला हो उसे गलगण्ड, लम्बी नाकवालेको दीर्घनासा और लम्बे कानवालेको लम्बकर्ण कहते हैं।
कनछिदा, नकटा, काना, लूला, लंगड़ा और बहरा इत्यादिक नाम अपचयपद हैं, क्योंकि शरीरके अवयवोंकी विकलताकी अपेक्षा इन नामोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
२५. शंका-प्राधान्यपद नामोंका अर्थात् जो नाम किसीकी प्रधानताके कारण व्यवहृत होते हैं उनका इन उपर्युक्त नामपदोंमें ही अन्तर्भाव कैसे हो जाता है ?
समाधान-बगुले और कौवेमें अनेक वर्गों के रहने पर भी बगुला सफेद होता है और कौआ काला होता है, इसप्रकार जो नाम निर्देश किया जाता है वह गौण्यपद नामोंमें अन्तर्भूत हो जाता है, क्योंकि गुणकी प्रधानतासे द्रव्यमें इन नामोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है। वनमें कदम्ब, आम और नीम आदि अनेक वृक्षोंके रहने पर भी एक जातिके वृक्षोंकी बहुलतासे 'यह नीमवन है' इसप्रकारका जो निर्देश किया जाता है उसका आदानपदमें अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि, जिस वनमें नीमके वृक्षोंकी प्रधानता पाई जाती है वहाँ उसके संबन्धसे नीमवन संज्ञाकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
राजा, असिधर, धनुर्धर, सुरलोक, सुरनगर, भारतक, ऐरावतक, शारद, वासन्तक,
(१) दीहगब्भरो अ०, आ० । दीहण · ·ल- स०। (२) तुलना-ध० सं० पृ० ७७ । ध० आ० प० ५३८ । (३) तुलना-ध० सं० पृ० ७७।ध० आ० पृ०५३८ । (४) "प्राधान्यपदानि आम्रवनं नमित्यादीनि ।"-ध० सं० पृ० ७६ । ध० आ० ५० ५३८ । “असोगवणे सत्तवण्णवणे चूअवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छवणे दक्खवणे सालिवणे, से तं पाहण्णयाए।" -अनु. सू० १३० । (५) बलाहकाए स०, अ०, आ० । (६) बलाहकालो स०, अ०, ता०। (७) "संजोगो दव्वखेत्तकालभावभेएण चउव्विहो । तत्थ धणुहासिपरसुआदिसंजोगेण संजत्तरिसाणं धणहासिपरसुणामाणि दव्वसंजोगपदाणि। भारहओ अइरावओ माहरो मागहो ति खेत्तसंजोगपदाणि णामाणि। सारओ वासंतओ त्ति कालसंजोगपदणामाणि । रइओ तिरिक्खो कोही माणी बालो जवाणो इच्चेवमाईणि भावसंजोगपदाणि ।"-ध० आ० ५० ५३८। ध० सं० पृ०७७।
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