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गा०१]
पमाणणिरूवणं णिवददि त्ति सिद्धं । समयावलिय-खण-लव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मास-उंडुवयण-संवच्छरगंग-पुव्व-पव्व-पल्ल-सागरादि कालपमाणं । ण च एदं दव्वपमाणे णिवददि; ववहारकालग्गहणादो । ण च ववहारकालो दव्वं । उत्तं च
___"कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूदो ।
दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदों ॥ ४ ॥" एदेण सुत्तेण ववहारकालस्स दव्वभावासिद्धीदो।
समय, आवली, क्षण अर्थात् स्तोक, लव, मुहुर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्य, सागर आदि कालप्रमाण है । यह कालप्रमाण द्रव्यप्रमाणमें अन्तर्भूत नहीं होता है, क्योंकि यहां व्यवहारकालका ग्रहण किया गया है। और व्यवहारकाल द्रव्य नहीं है। कहा भी है
"समय, निमिष आदि व्यवहारकाल जीव और पुद्गलके परिणामसे व्यवहारमें आता है, अत: वह परिणामसे उत्पन्न हुआ कहा जाता है। तथा जीव और पुद्गलका परिणाम उसके निमित्तभूत द्रव्यकालके रहने पर ही उत्पन्न होता है, अत: वह द्रव्यकालके द्वारा उत्पन्न हुआ कहा जाता है । व्यवहारकाल और निश्चयकालका यही स्वभाव है । तथा व्यवहारकाल क्षणभंगुर है और निश्चयकाल नित्य है ।। ४ ॥" इस गाथासे व्यवहारकाल द्रव्य नहीं है यह सिद्ध हो जाता है।
विशेषार्थ-छहों द्रव्योंकी एक पर्यायसे दूसरी पर्यायके होनेमें अन्तरंग कारण प्रत्येक द्रव्यके अगुरुलघु गुण हैं और निमित्त कारण कालद्रव्य है। प्रत्येक द्रव्यकी एक पर्यायसे दूसरी पर्यायके होनेमें जो काल लगता है उसे आगममें समय कहा है, जो कालद्रव्यकी वर्तनागुणसे उत्पन्न होनेवाली अर्थपर्याय है । यद्यपि अतिसूक्ष्म होनेके कारण क्षायोपशमिक ज्ञानोंके द्वारा इसका ग्रहण तो नहीं हो सकता है फिर भी मन्दगतिसे गमन करते हुए एक परमाणुके द्वारा एक कालाणुसे व्याप्त आकाशप्रदेशके व्यतिक्रम करने में जितना काल लगता है आगममें उस कालको समय कहा है, अतः इस कालमें जो समयका व्यवहार होता है वह पुद्गलनिमित्तक है और इसके समुदायमें आवली और निमिष आदि रूप व्यवहार तो स्पष्टतः जीव और पुद्गलके परिणमनके निमित्तसे होता है। अत: यह सब व्यवहारकाल कहा जाता है। इससे निश्चित हो जाता है कि इस व्यवहारकालका उपादान कारण कालद्रव्य है और निमित्त कारण जीव और पुद्गलोंका, विशेषकर केवल ढाई द्वीपमें स्थित सूर्यमंडलका परिणमन है। अत: व्यवहारकाल द्रव्य न होकर पुद्गल और जीवद्रव्यके परिणामसे व्यवहारमें आनेवाली कालद्रव्यकी औपचारिक पर्याय है। इसलिये उसे द्रव्यप्रमाणमें ग्रहण न करके स्वतन्त्र प्रमाण कहा है।
(१) 'थोवो खणो"-ध० आ० ५० ८८२ । २)-उडुअयण-स०। (३)-जुगपव्वपल्ल-अ० । (४) “पुणो एदाणि एगपुव्ववस्साणि ठवेदूण लक्खगुणिदेण चउरासीदिवग्गेण गुणिदे पव्वं होदि ।"-ध० आ० ५० ८८२ । (५) पञ्चा० गा० १०० ।
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