________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ २८. णाणपमाणं पंचविहं, मदि-सुद-ओहि-मणपज्जव-केवलणाणभेएण । णाणस्स पमाणत्ते भण्णमाणे संसयाणज्झवसायविवज्जयणाणाणं पि पमाणत्तं पसज्जदे ण; 'प'सद्देण तेसिं पमाणत्तस्स ओसारिदत्तादो । पमाणेसु णाणपमाणं चेव पहाणं; एदेण विणा सेसासेसपमाणाणमभावप्पसंगादो । इंदिय-णोइंदिएहि सद्दे-रस-परिस-रूव-गंधादिविसएसु ओग्गह-ईहावाय-धारणाओ मदिणाणं, इंदियहसण्णिकरिससमणंतरमुप्पण्णत्तादो । मदिणाणपुव्वं सुदणाणं होदि मदिणाणविसईकयअट्ठादो पुधभूदट्ठविसयं, अण्णहा ईहादीणं पि मदिपुव्वत्तं पडि विसेसाभावेण सुदणाणत्तप्पसंगादो। तं च उवदेसाणुवदेसपुव्वं, ण च उवदेसपुव्वं चेवेत्ति णियमो अस्थि ।
"पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणहिलप्पाणं ।
पण्णवणिजाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥ ५॥" २८. ज्ञानप्रमाण मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे पांच प्रकारका है।
शंका-ज्ञान प्रमाण है ऐसा कथन करने पर संशय, अनध्यवसाय और विपर्यय ज्ञानोंको भी प्रमाणता प्राप्त होती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रमाणमें आये हुए 'प्र' शब्दके द्वारा संशय आदिकी प्रमाणताका निषेध कर दिया है।
चूर्णिसूत्रमें जो सात प्रकारके प्रमाण बतलाये हैं, उनमें ज्ञानप्रमाण ही प्रधान है, क्योंकि उसके बिना शेष समस्त प्रमाणोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है।
इन्द्रिय और मनके निमित्तसे शब्द, रस, स्पर्श, रूप और गन्धादिक विषयोंमें अवग्रह ईहा, अवाय और धारणारूप जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है, क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षके अनन्तर उसकी उत्पत्ति होती है। जो ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है और मतिज्ञानके द्वारा विषय किये गये अर्थसे पृथग्भूत अर्थको विषय करता है वह श्रुतज्ञान है । यदि ऐसा न माना जाय, अर्थात् यदि केवल मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले ज्ञानको ही श्रुतज्ञान माना जाय और उसका विषय मतिज्ञानसे पृथक् न माना जाय तो ईहादिक ज्ञानोंको भी श्रुतज्ञानत्वका प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि श्रुतज्ञानकी तरह ईहादिक भी अवग्रहादि मतिज्ञानपूर्वक होते हैं । वह श्रुतज्ञान उपदेशपूर्वक भी होता है और बिना उपदेशके भी होता है, इसलिये श्रुतज्ञान उपदेशपूर्वक ही होता है ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि
"अनभिलाप्य पदार्थोंके अर्थात् जो पदार्थ शब्दोंके द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं उनके अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय अर्थात् प्रतिपादन करनेके योग्य पदार्थ हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थोके अनन्तवें भाग प्रमाण श्रुतनिबद्ध पदार्थ हैं ॥५॥" ।
(१)-सद्दपासरस-अ०, आ० । (२) गो० जीव० गा० ३३३ । वि० भा० गा० १४१ । बृह० भा० गा० ९६५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org