Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० १ ]
प्रमाणणिरूवणं
३६
पमेयत्तमेव । अंगुलादिओगाहणाओ खेत्तपमाणं, 'प्रमीयन्ते अवगाह्यन्ते अनेन शेषद्रव्याणि' इति अस्य प्रमाणत्वसिद्धेः ।
" खेत्तं खलु आयासं, तव्विवरीयं च होदि णोखेत्तं ॥ ३ ॥ "
इदि वयणादो खेत्तपमाणं दंडादिपमाणं च (व) दव्वपमाणे अंतब्भावं किण्ण गच्छदि ? एस दोसो; दव्वमिदि उत्ते परिणामिदव्वाणं जीवपोग्गलाणमण्णेसिं परिच्छित्तिणिमित्ताणं गहणं, तत्थ पचयापचयभावदंसणादो संकोचविकोचत्तुवलंभादो च । ण च धमाधम्मकालागासा परिणामिणो; तत्थ रूव-रस-गंध- पासोगाहण-संठाणंतरसंकंतीणआदि संज्ञाओंका व्यवहार देखा जाता है, इसलिये यहाँ द्रव्यप्रमाणसे सोने और गेहूँ आदिका ग्रहण न करके तौलने और मापनेके साधनोंका ही ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि सोना और गेहूँ आदि पदार्थ स्वयं तुला और कुडव आदि कुछ भी नहीं हैं । उनमें तो केवल तुला और कुडवरूप परिमाण देखकर तुला और कुडवरूप व्यवहार किया जाता है, इसलिये यह व्यवहार औपचारिक है, वास्तविक नहीं । वास्तवमें सोना और गेहूँ आदि पदार्थ प्रमेय ही हैं प्रमाण नहीं ।
अंगुल आदिरूप अवगाहनाएँ क्षेत्रप्रमाण हैं, क्योंकि 'जिसके द्वारा शेष द्रव्य प्रमित किये जाते हैं अर्थात् अवगाहित किये जाते हैं उसे प्रमाण कहते हैं' प्रमाणकी इस व्युत्पत्ति के अनुसार अंगुल आदिरूप क्षेत्रको भी प्रमाणता सिद्ध है ।
शंका- " क्षेत्र नियमसे आकाश द्रव्य है और इससे विपरीत अर्थात् आकाशसे अतिरिक्त शेष द्रव्य नोक्षेत्र है ॥ ३ ॥ "
इस वचन के अनुसार क्षेत्रप्रमाण जो कि आकाश द्रव्यस्वरूप है, दण्डादिप्रमाणके समान द्रव्यप्रमाण में अन्तर्भावको क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यप्रमाणमें द्रव्यपद से अन्य पदार्थोंकी परिच्छित्ति में कारणभूत परिणामी द्रव्य जीव और पुद्गलका ही ग्रहण किया है । कारण कि जीव और पुद्गलमें वृद्धि और हानि तथा संकोच और विस्तार पाया जाता है । अर्थात् पुद्गल द्रव्यमें स्कन्धकी अपेक्षा वृद्धि और हानि होती रहती है तथा जीव और पुद्गल दोनों में संकोच और विस्तार पाया जाता है । इससे जाना जाता है कि यहां द्रव्य पदसे जीव और पुगलका ही ग्रहण किया है । किन्तु धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य उसप्रकार परिणामी नहीं हैं, क्योंकि इनमें रूपसे रूपान्तर, रससे रसान्तर, गन्ध से गन्धान्तर, स्पर्शसे
(१) "क्षेत्रप्रमाणं द्विविधम् अवगाहक्षेत्रं विभागनिष्पन्नक्षेत्रं चेति । तत्रावगाहक्षेत्रमनेकविधम्, एकद्वित्रिचतुःसंख्येया संख्येयानन्तप्रदेश पुद्लद्रव्यावगाह्ये काद्य संख्येयाकाशप्रदेशभेदात् । विभागनिष्पन्नक्षेत्रं चानेकविधम्असंख्येयाकाशश्रेणयः, क्षेत्रप्रमाणाङ्गलस्यैकोऽसंख्येयभागः " - राजवा० ३।३८ । “खेत्तपमाणे दुविहे पण्णत्ते पणिफणे अ विभागणिप्फण्णे अ" - अनु० सू० १३१ । (२) “खेत्तं खलु आगासं तव्विवरीयं च होइ नोखेत्तं । जीवा य पोग्गला विय धम्माधम्मत्थिया कालो ||" - जीवस० गा० १६८ । उद्धृतेयम्-ध० खे० प्र० ७ ।
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