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गा० ]
पमाण णिरूवणं एदेसिं दोण्हं णामाणं पउत्तिदंसणादो । अणादिसरूवेण पयट्टाणि एदाणि दो णामाणि अणादियसिद्धतपदेसु किण्ण णिवदंति ? ण; अणादियसिद्धंतपदस्स गोष्ण-णोगोण्णपदेसु अंतब्भावं गदस्स छप्पदणामेहिंतो पुधभावाणुवलंभादो । एवं णामपरूवणा गदा। ___ * पंमाणं सत्तविहं
२७. एदस्स सुत्तस्स अत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा-णामपमाणं वणपमाणं संखपमाणं दव्वपमाणं खेत्तपमाणं कालपमाणं णाणपमाणं चेदि । प्रेमीयतेऽनेनेति ग्रहण किया जाय तो यह कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि न तो जीव आकाशको धारण ही कर सकते हैं और न पुष्ट ही। अतएव यही अर्थ होगा कि जो शास्त्र आकाशद्रव्यके कथन करनेका आधारभूत है और जिसमें विस्तारसे आकाशका कथन है वह आकाशप्राभृत है। इसी प्रकार प्रकृतमें समझना चाहिये ।
शंका-पेजदोषप्राभृत और कषायप्राभृत नाम अनादिकालसे पाये जाते हैं, अतः इनका अनादिसिद्धान्तपदनामोंमें अन्तर्भाव क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनादिसिद्धान्तपदका गौण्यपद और नोगौण्यपदमें अन्तर्भाव हो जाता है। अतः वह उक्त छह प्रकारके नामोंसे अलग नहीं पाया जाता है ।
विशेषार्थ-ऊपर यह बतला आये हैं कि जो जीव आदि अनादिसिद्धान्तपद गुणकी मुख्यतासे व्यवहृत होते हैं वे गौण्य पदनाममें और जो धर्म आदि अनादिसिद्धान्तपद गुणकी मुख्यतासे व्यवहृत नहीं होते हैं उनका नोगौण्यपदनाममें अन्तर्भाव हो जाता है। तदनुसार यहाँ उक्त दोनों नामोंका गौण्यपदनाममें अन्तर्भाव किया गया है।
इसप्रकार नामप्ररूपणा समाप्त हुई। * प्रमाण सात प्रकारका है।
२७. अब इस सूत्रके अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं। वह इसप्रकार है-नामप्रमाण, स्थापनाप्रमाण, संख्याप्रमाण, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और ज्ञानप्रमाण, ये प्रमाणके सात भेद हैं। जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसे प्रमाण कहते हैं। नामपद
(१) “प्रमाणं द्विविध लौकिकलोकोत्तरभेदात् । लौकिकं षोढा मानोन्मानावमानगणनाप्रतिमानतत्प्रमाणभेदात • • लोकोत्तरं चतुर्धा द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्"-राजवा० ३।३८ । “पमाणं पंचविहं दव्वखेत्तकालभावणयप्पमाणभेदेहि । 'अथवा प्रमाणं छव्विहं नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावप्रमाणभेदात् ।"-ध० सं० प्र०८०, ८१। ध० आ० प० ५३८ । “पमाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा दव्वपमाणे खेत्तप्रमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे । (१३१) भावप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-गुणप्पमाणे नयप्पमाणे संखप्पमाणे । गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-जीवगुणप्पमाणे अजीवगुणप्पमाणे अ। जीवगुणप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरित्तगुणप्पमाणे ।"-अनु० सू० १३१, १४३ । (२) "प्रमीयते परिच्छिद्यते धान्यद्रव्याद्यनेनेति प्रमाणम् असतिप्रस्सृत्यादि, अथवा इदं चेदं च स्वरूपमस्य भवतीत्येवं प्रतिनियतस्वरूपतया प्रत्येक प्रमीयते परिच्छिद्यते यत्तत्प्रमाणं यथोक्तमेव, यदि वा धान्यद्रव्यादेरेव प्रमितिः परिच्छेदः स्वरूपावगम: प्रमाणम्"-अनु० म० सू० १३२ ।
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