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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ भारहय-अइरावय-सायर ( सारय) वासंतय-कोहि-माणिइच्चाईणि णामाणि वि आदाणपदे चेव णिवदंति, इदमेदस्स अत्थि, एत्थ वा इदमत्थि त्ति विवक्खाए एदेसिं णामाणं पवुत्तिदंसणादो । अवयवपदणामाणि अवचय-उवचयपदणामेसु पविसंति; तेहिंतो तस्स भेदाभावादो । सुअणासा कंबुग्गीवा कमलदलणयणा चंदमुही विबोही इच्चाईणि तत्तो बाहिराणि अत्थि त्ति चे ण एदाणि णामाणि समासं तभू (तब्भू) द-इवसहत्थसंबंक्रोधी और मानी इत्यादि द्रव्यसंयोग, क्षेत्रसंयोग, कालसंयोग और भावसंयोगरूप नामपद भी आदानपदमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि, 'यह इसका है अथवा यहाँ यह है' इसप्रकारके संयोगसे इन नामों की प्रवृत्ति देखी जाती है।
विशेषार्थ-राज्यका स्वामी होनेसे राजा, तलवार धारण करनेसे असिधर, धनुष धारण करनेसे धनुर्धर, देवताओंका निवास स्थान होनेसे सुरलोक और सुरनगर, भरतक्षेत्रमें जन्म लेनेसे भारतक, ऐरावत क्षेत्रमें जन्म लेनेसे ऐरावतक, शरद कालके संबन्धसे शारद, वसन्त कालके संबन्धसे वासन्तक, क्रोध भावके होनेसे क्रोधी, मान भावके होनेसे मानी संज्ञाका व्यवहार होता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मुख्यतासे व्यवहृत होनेके कारण उक्त संज्ञाएँ आदानपदमें अन्तर्भूत हो जाती हैं।
___ अवयवपदनाम अपचयपदनामों और उपचयपदनामोंमें अन्तर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि अपचय और उपचयपदनामोंसे अवयवपदका भेद नहीं पाया जाता है। अर्थात् अवयवविशेषके कारण जो नाम पड़ता है उसे अवयवपद नाम कहते हैं। यह नाम या तो किसी अवयवके बढ़ जानेसे पड़ता है या घट जानेसे पड़ता है। जैसे, कनछिदा और लम्बकर्ण । अतः यह अवयवनामपद अपचयपद और उपचयपदमें गर्भित हो जाता है ।
शंका-शुकनासा, कम्बुग्रीवा, कमलदलनयना, चन्द्रमुखी और बिम्बोष्ठी इत्यादि नाम तो अपचयपदं और उपचयपद नामोंसे पृथक् पाये जाते हैं ?
समाधान-शुकनासा, कम्बुग्रीवा और कमलदलनयना इत्यादि संज्ञाएँ स्वतन्त्र नाम नहीं हैं, क्योंकि समासके अन्तर्भूत हुए इव शब्दके अर्थके सम्बन्धसे इनकी द्रव्यमें प्रवृत्ति देखी जाती है।
विशेषार्थ-जिस स्त्रीकी नाक तोतेकी नाककी तरह हो उसे शुकनासा कहते हैं । जिस स्त्रीकी गर्दन शंखके समान होती है उसे कम्बुग्रीवा कहते हैं। इसीतरह जिसकी “संजोगे नउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वसंजोगे खेत्तसंजोगे कालसंजोगे भावसंजोगे ।"-अनु० सू० १३०।
(१) कोही माणी इच्चा-स०, अ०, आ० । (२) अवयवपदानि यथा । सोऽवयवो द्विविध:-उपचितोऽपचित इति।"-ध० सं० पृ० ७७। "अवयवो दुविहो समवेदो असमवेदो चेदि.."-ध० आ० १० १३८॥ "से कि तं अवयवेणं? सिंगी सिंही विसाणी दंडी पक्खी खरी नही वाली। .."-अन० स० १३०॥
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