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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ १ पेज्जदोसविहत्ती
सः ज्ञानं च तत् मन:पर्ययज्ञानम् । तं दुविहं - उजुमदी विलमदी चेदि । एत्थ एदेसिं ाणा लक्खणाणि जाणिय वत्तव्वाणि ।
पर्यय कहलाता है । इसप्रकार मन:पर्ययरूप जो ज्ञान है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । वह मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमतिके भेदसे दो प्रकारका है । यहाँ पर इन ज्ञानोंके लक्षणोंको जान कर कथन कर लेना चाहिये ।
विशेषार्थ - यहाँ अर्थके निमित्तसे होनेवाली मनकी पयायको मन:पर्यय और इनके प्रत्यक्ष ज्ञानको मन:पर्ययज्ञान कहा है । इसके ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद हैं । इनमेंसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानके ऋजुमनोगत, ऋजुवचनगत और ऋजुकायगत विषयकी अपेक्षा तीन भेद हैं । जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसका उसीप्रकार चिन्तवन करनेवाले मनको ऋजुमन कहते हैं । जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसका उसीप्रकार कथन करनेवाले वचनको ऋजुवचन कहते हैं । तथा जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसे अभिनयद्वारा उसीप्रकार दिखलानेवाले कायको ऋजुकाय कहते हैं । इसप्रकार जो सरल मनके द्वारा विचारे गये मनोगत अर्थको जानता है वह ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है । जो सरल वचनके द्वारा कहे गये और सरल कायके द्वारा अभिनय करके दिखलाये गये मनोगत अर्थको जानता है वह भी ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है । वचनके द्वारा कहे गये और कायके द्वारा अभिनय करके दिखलाये गये मनोगत अर्थको जानने से मन:पर्ययज्ञान श्रुतज्ञान नहीं हो जाता है, क्योंकि, यह राज्य या राजा कितने दिन तक वृद्धिको प्राप्त होगा ऐसा विचार करके वचन या कायद्वारा प्रश्न किये जाने पर राज्यकी स्थिति तथा राजाकी आयु आदिको प्रत्यक्ष जाननेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता है। इस ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्ति में इन्द्रिय और मनकी अपेक्षा रहती है । ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी पहले मतिज्ञानके द्वारा दूसरे अभिप्रायको जानकर अनन्तर मन:पर्ययज्ञानके द्वारा दूसरे के मनमें स्थित दूसरेका नाम, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवन, मरण, इष्ट अर्थका समागम, अनिष्ट अर्थका वियोग, सुख, दुःख, नगर आदिकी समृद्धि या विनाश आदि विषयोंको जानता है । तात्पर्य यह है कि ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित व्यक्त मनवाले जीवोंसे संबन्ध रखनेवाले या वर्तमान जीवोंके वर्तमान मनसे संबन्ध रखनेवाले त्रिकालवर्ती पदार्थोंको जानता है । अतीत मन और अनागत मनसे संबन्ध रखनेवाले
(१) "परकीयमतिगतोऽर्थः उपचारेण मतिः, ऋज्वी अवत्रा । कथमृजुत्वम् ? यथार्थमत्यारोहणात्, यथार्थमभिधानगतत्वात्, यथार्थमभिनयागतत्वाच्च ऋज्वी मतिर्यस्य स ऋजुमतिः । उज्जुवेण वचिकायगदमत्थमुज्जुवं जाणतो तव्विवरीदमणुज्जुवमत्थमजाणतो मणपज्जवणाणी उजुमदित्ति भण्णदे ।" - ध० आ० प० ५२७ । सर्वार्थ०, राजवा० १।२३ । गो० जीव० गा० ४४१ । (२) “परकीयमतिगतोऽर्थो मतिः, विपुला विस्तीर्णा । कुतो वैपुल्यम् ? यथार्थमनोगमनात् अयथार्थमनोगमनात् उभयथापि तदवगमनात्, यथार्थवचो - गमनात् अयथार्थवचोगमनात् उभयथापि तत्र गमनात्, यथार्थकायगमनात् अयथार्थकायगमनात् ताभ्यां तत्र गमनाच्च वैपुल्यम् । विपुला मतिर्यस्य स विपुलमतिः ।" - ध० आ० प० ५२७ । सर्वार्थ०, राजवा० ११२३ ।
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