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गा० १ ]
मणपज्जवणाणवियारो ६१४. मनसः पर्ययः मनःपर्ययः, तत्साहचर्याज्ज्ञानमपि मनःपर्ययः, मनःपर्ययश्च जीव शरीरके एकदेशसे ही अवधिज्ञानके विषयभूत पदार्थोंको जानते हैं ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि, परमावधि और सर्वावधिके धारक गणधरदेव आदि मनुष्योंके भी अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान पाया जाता है। जिन जीवोंके एकक्षेत्र अवधिज्ञान होता है उनके भी अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम सर्वांग ही होता है। यहाँ एकक्षेत्रका अभिप्राय इतना ही है कि जिसप्रकार प्रतिनियत स्थानमें स्थित चक्षु आदि इन्द्रियाँ मतिज्ञानकी प्रवृत्तिमें साधकतम कारण होती हैं उसीप्रकार नाभिसे ऊपर शरीरके विभिन्न स्थानों में स्थित श्रीवत्स आदि आकारवाले अवयवोंसे अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है, इसलिये वे अवयव अवधिज्ञानकी प्रवृत्तिमें साधकतम कारण हैं। इन स्थानोंमेंसे किसीके एक स्थानसे किसीके दो आदि स्थानोंसे अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। ये स्थान तिर्यंच और मनुष्य दोनोंके ही नाभिसे ऊपर होते हैं। किन्तु विभंगज्ञान नाभिसे नीचेके अशुभ आकारवाले स्थानोंसे प्रकट होता है। जब किसी विभंगज्ञानीके सम्यग्दर्शनके फलस्वरूप विभंगज्ञानके स्थानमें अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब उसके अशुभ आकारवाले स्थान मिट कर नाभिके ऊपर श्रीवत्स आदि शुभ आकारवाले स्थान प्रकट हो जाते हैं, और वहांसे अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति होने लगती है। इसीप्रकार जब किसी अवधिज्ञानीका अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनके अभावमें विभंगज्ञानरूपसे परिवर्तित हो जाता है तब उसके शुभ आकारवाले चिह्न मिटकर नाभिसे नीचे अशुभ आकारवाले स्थान प्रकट हो जाते हैं और वहाँसे विभंगज्ञानकी प्रवृत्ति होने लगती है। ऊपर कहे गये इन दश भेदोंमेंसे भवप्रत्यय अवधिज्ञानमें अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अनेकक्षेत्र ये पांच भेद संभव हैं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञानमें दसों भेद पाये जाते हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधिकी अपेक्षा देशावधिमें दसों भेद, परमावधिमें हीयमान, प्रतिपाती और एकक्षेत्र इन तीनको छोड़कर शेष सात भेद तथा सर्वावधिमें अनुगामी, अननुगागी, अवस्थित, अप्रतिपाती और अनेकक्षेत्र ये पांच भेद पाये जाते हैं । परमावधि और सर्वावधिमें अननुगामी भेद भवान्तरकी अपेक्षा कहा है।
६१४. मनकी पर्यायको मनःपर्यय कहते हैं। तथा उसके साहचर्यसे ज्ञान भी मन:
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. (१) “परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते, साहचर्यात्तस्य पर्ययणं परिगमनं मनःपर्ययः । सर्वार्थ०, १९"मनः प्रतीत्य प्रतिसन्धाय वा ज्ञानं मनःपर्ययः । परकीयमनसि गतोऽर्थो मन इत्युच्यते, तात्स्थ्यात्ताच्छब्द्यमिति । स च को मनोगतोऽर्थः ? भावघटादिः । तमर्थं समन्तादेत्य आलम्ब्य वा प्रसादादात्मनो ज्ञानं मनःपर्ययः ।"-राजवा० १९। “परिः सर्वतो भावे, अयनमयः गमनं वेदनमिति पर्यायाः । परि अयः पर्ययः पर्ययनं पर्यय इत्यर्थः। मनसि मनसो वा पर्ययः मनःपर्ययः सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः। स एव ज्ञानं मन:पर्यायज्ञानम् । अथवा मनसः पर्याया मनःपर्याया धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनादिप्रकारा इत्यनर्थान्तरम् । तेषु ज्ञानं तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् ।" -नन्दी० ह. पृ० २५ ।
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