________________
१८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .
[१ पेज्जदोसविहत्ती
सम्यग्दृष्टि, देशव्रती और महाव्रती जीवोंके नहीं पाया जाता है, क्योंकि, असंख्यात लोकप्रमाण सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमरूप परिणामोंमें अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमके कारणभूत परिणाम बहुत ही थोड़े हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके तथा गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यंच और मनुष्योंके होता है। विषय आदिकी प्रधानतासे अवधिज्ञानके देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद किये जाते हैं । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधिरूप ही होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तीनों प्रकारका होता है। देशावधिका उत्कृष्ट विषय क्षेत्रकी अपेक्षा सम्पूर्ण लोक, कालकी अपेक्षा एक समय कम पल्य, द्रव्यकी अपेक्षा ध्रुवहारसे एकबार भक्त कार्मणवर्गणा और भावकी अपेक्षा द्रव्यकी असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायें है। इसके अनन्तर परमावधिज्ञान प्रारंभ होता है । उत्कृष्ट देशावधिके ऊपर और सर्वावधिके नीचे जितने अवधिज्ञानके विकल्प हैं वे सब परमावधिके भेद हैं। अवधिज्ञानका सबसे उत्कृष्ट भेद सर्वावधि कहलाता है। उत्कृष्ट देशावधि, परमावधि और सर्वावधि संयतके ही होते हैं । तथा जघन्य देशावधि मनुष्य और तिर्यंच दोनोंके होता है। देशावधिके मध्यम विकल्प यथासंभव चारों गतियोंके जीवोंके पाये जाते हैं। वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, प्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्रके भेदसे भी अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होनेके समयसे लेकर केवलज्ञान उत्पन्न होने तक बढ़ता चला जाता है वह वर्धमान अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर वृद्धि और अवस्थानके बिना घटता चला जाता है वह हीयमान अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञान प्राप्त होने तक अवस्थित रहता है वह अवस्थित अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर कभी बढ़ता है, कभी घटता है और कभी अवस्थित रहता है वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीवके साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है। इसके क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और क्षेत्रभवानुगामी इसप्रकार तीन भेद हैं। इसीप्रकार अननुगामी अवधिज्ञानके भी क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवाननुगामी ये तीन भेद हैं। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर समूल नष्ट हो जाता है वह प्रतिपाती अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञानके होने पर ही नष्ट होता है वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है । प्रतिपाती और अप्रतिपाती ये दोनों अवधिज्ञान सामान्यरूपसे कहे गये हैं, इसलिये इनका वर्धमान आदिमें अन्तर्भाव नहीं होता है। जो अवधिज्ञान शरीरके किसी एकदेशसे उत्पन्न होता है उसे एकक्षेत्र अवधिज्ञान कहते हैं । जो अवधिज्ञान शरीरके प्रतिनियत क्षेत्रके बिना उसके सभी अवयवोंसे उत्पन्न होता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान कहलाता है । देव और नारकियोंके अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान ही होता है, क्योंकि देव और नारकी अपने शरीरके समस्त प्रदेशोंसे अवधिज्ञानके विषयभूत पदार्थोंको जानते हैं। इसीप्रकार तीर्थंकरोंके मी अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान होता है। फिर भी शेष सभी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org