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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेजदोसविहत्ती १६.ओहि-मणपज्जवणाणाणि वियलपच्चक्खाणि, अत्थेगदेसम्मि विसदसरूवेण तेसिं पउत्तिदंसणादो । केवलं सयलपच्चक्खं, पञ्चक्खीकयतिकालविसयासेसदव्वपज्जयभावादो । मदि-सुदणाणाणि परोक्वाणि, पाएण तत्थ अविसदभावदंसणादो । मंदिपुव्वं सुदं, मदिणाणेण विणा सुदणाणुप्पत्तीए अणुवलंभादो।
१६. इन पांचों ज्ञानोंमें अवधि और मन:पर्यय ये दोनों ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि पदार्थों के एकदेशमें अर्थात् मूर्तीक पदार्थों की कुछ व्यंजनपर्यायों में स्पष्टरूपसे उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है। केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है, क्योंकि केवलज्ञान त्रिकालके विषयभूत समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायोंको प्रत्यक्ष जानता है। तथा मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें प्रायः अस्पष्टता देखी जाती है। इनमें भी श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, क्योंकि मतिज्ञानके बिना श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति नहीं पाई जाती है।
विशेषार्थ-आगममें बताया है कि पाँचों ज्ञानावरणोंके क्षयसे केवलज्ञान प्रकट होता है। इससे निश्चित होता है कि आत्मा केवलज्ञानस्वरूप है। तो भी ज्ञान पाँच माने गये हैं। इसका कारण यह है कि केवलज्ञानावरण कर्म केवलज्ञानका पूरी तरहसे घात नहीं कर सकता है, क्योंकि ज्ञानका पूरी तरहसे घात मान लेने पर आत्माको जड़त्व प्राप्त होता है, अतः केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञानके आवृत रहते हुए भी जो अतिमंद ज्ञानकिरणें प्रस्फुटित होती हैं, उनको आवरण करनेवाले कर्मोंको आगममें मतिज्ञानावरण आदि कहा है। तथा उनके क्षयोपशमसे प्रकट होनेवाले ज्ञानोंको मतिज्ञान आदि कहा है। ज्ञानका स्वभाव पदार्थोंको स्वतः प्रकाशित करना है, अतः चार क्षायोपशमिक ज्ञानोंमेंसे जिन ज्ञानोंका क्षयोपशमकी विशेषताके कारण यह धर्म प्रकट रहता है वे प्रत्यक्ष ज्ञान हैं
और जिन ज्ञानोंका यह धर्म आवृत रहता है वे परोक्ष ज्ञान हैं । परोक्षमें पर शब्दका अर्थ इन्द्रिय और मन है, इसलिये यह अभिप्राय हुआ कि जो ज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायतासे प्रवृत्त होते हैं वे परोक्ष ज्ञान हैं। ऐसे ज्ञान मति और श्रुत ये दो ही हैं, क्योंकि अपने ज्ञेयके प्रति इनकी प्रवृत्ति स्वतः न होकर इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होती है। यद्यपि इन ज्ञानोंकी प्रवृत्तिमें आलोक आदि भी कारण पड़ते हैं पर वे अव्यभिचारी कारण न होनेसे यहाँ उनका ग्रहण नहीं किया गया है। मतिज्ञानको जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है उसका कारण व्यवहार है। प्रत्यक्षका लक्षण जो विशदता है वह एक देशसे मतिज्ञानमें भी पाया जाता है । मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते समय 'जो ज्ञान पर अर्थात् इन्द्रिय और मनकी सहायतासे प्रवृत्त होते हैं वे परोक्ष हैं' परोक्षके इस लक्षणकी प्रधानता नहीं रहती है, किन्तु वहाँ व्यवहारकी प्रधानता हो जाती है । अवधिज्ञान आदि
(१) "श्रुतं मतिपूर्व.."-त० सू०१।२०। “मइपुव्वं जेण सुअंन मई सुअपुष्विआ।"-नन्दी० सू० २४॥
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