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गा०]
आणुपुव्वीलक्खणं मेत्ताओ वत्थूओ चोदसण्हं पुव्वाणं जहाकमेण होति । एक्केके वत्थूए बीस बीसं पाहुडाणि । एक्के कम्मि पाहुडे चउबीसं चउबीसं अणियोगद्दाराणि होति । एसो सव्वो वि सुदक्खंधो एदीए गाहाए सूचिदो ति चुण्णिसुत्तेण वि अणुवादो कदो ।
६२१. एवं सुदक्खधं जाणाविय पंचण्हमुवकमाणं संखापरूवणदुवारेण तेसिं परूवणमुत्तरसुत्तं जइवसहाइरियो भणदि
* आणुपुव्वी तिविहा । दस इतनी वस्तुएँ अर्थात् महाअधिकार होते हैं। प्रत्येक वस्तुमें बीस बीस प्राभृत अर्थात् अवान्तर अधिकार होते हैं। और एक एक प्राभृतमें चौबीस चौबीस अनुयोगद्वार होते हैं। यह सर्व ही श्रुतस्कन्ध 'पुत्वम्मि पंचमम्मि दु' इस गाथासे सूचित किया गया है, अतएव चूर्णिसूत्रसे भी उसका अनुवाद किया गया है।
विशेषार्थ-मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थका अवलंबन लेकर जो अन्य अर्थका ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है। यह अक्षरात्मक और अनक्षरात्मकके भेदसे दो प्रकारका है। लिंगजन्य श्रुतज्ञानको अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं। और वह एकेन्द्रियोंसे लेकर पंचेन्द्रिय तक जीवोंके होता है। तथा जो वर्ण, पद, वाक्यरूप शब्दोंके निमित्तसे श्रुतज्ञान होता है वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। यह दोनों प्रकारका श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप अन्तरंग कारणसे ही उत्पन्न होता है । इसलिये क्षयोपशमकी अपेक्षा ग्रंथकारोंने श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास आदि बीस भेद कहे हैं। यहां अक्षरज्ञानका अर्थ एक अक्षरका ज्ञान नहीं है किन्तु सबसे जघन्य पर्याय ज्ञानके ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानपतित वृद्धिके हो जानेपर उत्कृष्ट पर्यायसमास ज्ञान मिलता है, उसे अनन्तगुणवृद्धिसे संयुक्त कर देने पर जो अक्षर नामका श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, वह यहां अक्षरज्ञानसे विवक्षित है। इसीप्रकार शेष क्षायोपशमिक ज्ञानोंका स्वरूप गोमट्टसार आदि ग्रंथोंसे जान लेना चाहिये। परंतु ग्रंथकी अपेक्षा यह श्रुतज्ञान बारह प्रकारका है। अर्थात् आचारांग आदि बारह प्रकारके अंगोंके निमित्तसे जो श्रुतज्ञान होता है वह अंग और पूर्वज्ञान कहलाता है । तथा निमित्तकी मुख्यतासे द्रव्यश्रुतको भी श्रुतज्ञान कहते हैं। इस द्रव्यश्रुतको तीर्थंकरदेव अपनी दिव्यध्वनिमें बीजपदोंके द्वारा कहते हैं और गणधरदेव उन्हें बारह अंगों में प्रथित करते हैं। ऊपर इन्हीं बारह अंगोंके भेद प्रभेद बतलाये हैं।
२१. इसप्रकार श्रुतस्कन्धका ज्ञान कराके पांचों उपक्रमोंकी संख्याके कथनपूर्वक उनका विशेष प्ररूपण करने के लिये यतिवृषभ आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
* आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है ।
(१) “अनुना पश्चाद्भूतेन योगःअनुयोगः,अथवा अणुना स्तोकेन योगः अनुयोगः”-वृह० भा० टी० गा० १९०। (२)-परूवणादु-आ० । (३) “तिविहा आणुपुब्वी"-ध० सं० पृ० ७३ । “जहातहाणुपुब्बी"
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