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प्रस्तावना
इन भेदोंकी उत्पत्तिके विषयमें दिगम्बर परम्परामें वीरसेन स्वामीने एक नया ही प्रकाश डाला है। जावे लिखते हैं कि जीवमें मूलतः एक केवलज्ञान है, इसे सामान्यज्ञान भी कहते हैं।
' इसी ज्ञान सामान्यके आवरणभेदसे मतिज्ञान आदि पाँच भेद हो जाते हैं । ___ यद्यपि सर्वघाती केवलज्ञानावरण केवलज्ञान या ज्ञानसामान्यको पूरी तरह आवरण करता है फिर भी उससे रूपी द्रव्योंको जानने वाली कुछ ज्ञान किरणें निकलती हैं। इन्हीं ज्ञान किरणांके ऊपर शेष मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण आदि चार आवरण कार्य करते हैं। और इनके क्षयोपशम के अनुसार होनाधिक ज्ञानज्योति प्रकट होती रहती है। जिस तरह क्षारद्रव्यसे अग्निको पूरी तरह ढक देने पर उससे भाफ निकलती रहती है उसी तरह केवलज्ञानावरणसे पूरी तरह श्रावृत होनेवाले ज्ञानसामान्यकी कुछ मन्द किरणें आभा मारती रहती हैं। इनमें जो ज्ञानकिरणें इन्द्रियादिकी सहायताके बिना ही आत्ममात्रसे परके मनोविचारोंको जानने में समर्थ होती हैं वे मनःपर्यय तथा जो रूपी पदार्थों को जानती हैं वे अवधिज्ञान कहलाती हैं। और जो ज्ञानकिरणें इन्द्रियादि सापेक्ष हो पदार्थज्ञान करती हैं वे मति श्रुत कहलाती हैं। जब केवलज्ञानावरण हट जाता है और पूर्ण ज्ञानज्योति प्रकट हो जाती है तब इन ज्ञानोंकी सत्ता नहीं रहती। आज कल हम लोगोंको जो मनःपर्ययज्ञान या अवधिज्ञान नहीं है उसका कारण तदावरण कर्मों का उदय है। इस तरह ज्ञानसामान्य पर दुहरे आवरण पड़े हैं। फिर भी ज्ञानका एक अंश, जिसे पर्यायज्ञान कहते हैं, सदा अनावृत रहता है। यदि यह ज्ञान भी आवृत हो जाय तो जीव अजीव ही हो जायगा। यद्यपि शास्त्रोंमें पर्यायज्ञानावरण नामके ज्ञानावरणका उल्लेख है। परन्तु यह आवरण पोयज्ञान पर अपना असर न डालकर तदनन्तरवर्ती पर्यायसमासज्ञान पर असर डालता है। ___नन्दीसूत्र (४२) में बताया है कि जिस प्रकार सघन मेघोंसे आच्छन्न होने पर भी सूर्य
और चन्द्रकी प्रभा कुछ न कुछ आती ही रहती है। कितने भी मेघ आकाशमें क्यों न छा जाँय पर दिन और रात्रिका विभाग तथा रात्रिमें शुक्ल और कृष्ण पक्षका विभाग बराबर बना ही रहता है उसी तरह ज्ञानावरण कर्मसे ज्ञानका अच्छी तरह आवरण होने पर भी ज्ञानको प्रभा अपने प्रकाशस्वभावके कारण बराबर प्रकट होती रहती है। और इसी मन्दप्रभाके मति श्रत अवधि और मनःपर्यय ये चार भेद योग्यता और आवरणके कारण हो जाते हैं। मेघोंसे आवृत होने पर सूर्यकी जो धुंधली किरणें बाहिर आती हैं उनमें भी चटाई आदि आवरोसे जैसे अनेक छोटे बड़े खंड हो जाते हैं उसीतरह मत्यावरण श्रुतावरण आदि अवान्तर आवरणोंसे वे केवलज्ञानावरणावृत ज्ञानको मन्द किरणें मतिज्ञान आदि चार विभागोंमें विभाजित हो जाती हैं। केवलज्ञानका अनन्तवाँ भाग, जो अक्षरके अनन्तवें भागके नामसे प्रसिद्ध है सदा अनावृत रहता है । यदि यह भाग भी कर्मसे आवृत हो जाय तो जीव अजीव ही हो जायगा। उ० यशोविजयने ज्ञानबिन्दु (पृ०१) में केवलज्ञानावरणके दो कार्य बताएं हैं। जिस प्रकार केवलज्ञानावरण पूणेज्ञानका आवरण करता है उसी तरह वह मन्दज्ञानको उत्पन्न भी करता है। यही कारण है कि केवली अवस्थामें मतिज्ञानावरण आदिका क्षय होने पर भी मतिज्ञानादिकी उत्पत्ति नहीं होतो । क्योंकि मतिज्ञानादि रूपसे विभाजित होनेवाले मन्द ज्ञानको उत्पन्न करने में तो केवलज्ञानावरण कार्य करता है जबकि उसके मतिज्ञानादि विभाग एवं अवान्तर तारतम्यमें मतिज्ञानावरण आदि चार अवान्तर आवरण कार्य करते हैं। चूँकि ये मतिज्ञानावरण आदि केवल
(१) जयधवला पृ० ४४। धवला आ० १० ८६६। (२) "पज्जायावरणं पुण तदणंतरणाणभेदम्मि ।". -पो० जीव० गा० ३१९ । (३) पंचम कर्मग्रन्थ टी० ए० १२।
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