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जयधवलासहित कषायप्रामृत
४. ज्ञानका स्वरूप
ज्ञान गुण या धर्म है इस विषयमें प्रायः सभी दार्शनिक एकमत हैं। भूतचैतन्यवादी चार्वाक ज्ञानको स्थूल भूतोंका धर्म न मानकर सूक्ष्म भूतोंका धर्म मानता है । इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि चैतन्य या ज्ञान दृश्य पदार्थका धर्म न होकर किसी अदृश्य पदार्थका धर्म है। आत्मवादी दर्शनों में इस विषयमें भी मतभेद है कि ज्ञानका प्राश्रय आत्मा माना जाय या अन्य कोई तत्त्व । यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि आत्मवादी दर्शनेमें चैतन्य ओर ज्ञानके भेदाभेदविषयक मतभेद भी मौजूद हैं । सांख्य चैतन्यको पुरुषका धर्म मानता है ओर ज्ञानको प्रकृतिका धर्म । पुरुषगत चैतन्य बाह्यविषयोंको नहीं जानता । बाह्यविषयोंका जाननेवाला बुद्धितत्त्व प्रकृतिका एक विकार है। इस बुद्धिको महत्तत्त्व भी कहते हैं। यह बुद्धि उभयतः प्रतिबिम्बी दर्पणके समान है, अतः इसमें एक ओर तो पुरुषगत चैतन्य प्रतिफलित होता है और दूसरी ओर पदार्थों के आकार। इसीलिए इस बुद्धिरूपी माध्यमके द्वारा पुरुषको 'मैं रूपको देखता हूँ। आदि बाह्य पदार्थज्ञानविषयक मिथ्या अहं भान होने लगता है । इस तरह सांख्य विषयपरिच्छेदशून्य चैतन्यको पुरुषका धर्म मानता है तथा विषयपरिच्छेदक ज्ञानको प्रकृतिका धर्म।
न्याय-वैशेषिकोंने पहिलेसे ही सांख्यके इस बुद्धि और चैतन्यके भेदको नहीं माना है। इन्होंने बुद्धि और चैतन्यको पर्यायवाची माना है। इस तरह न्याय-वैशेषिक चैतन्य और ज्ञानको पर्यायवाची मानकर उसे आत्माका गुण मानते तो अवश्य हैं पर वे उसे आत्माका स्वभावभूत धर्म नहीं मानते। वे उसे आत्ममनःसंयोग इन्द्रियमनःसंयोग, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष आदि कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला कहते हैं। जब मुक्त अवस्थामें मन इन्द्रिय आदिका सम्बन्ध नहीं रहता तब ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, उसकी धारा उच्छिन्न हो जाती है। उस अवस्थामें आत्मा स्वरूपमात्रमें प्रतिष्ठित हो जाता है। उसके बुद्धि सुख दुःख आदि संयोगज बिशेष गुणोंका उच्छेद हो जाता है। इस प्रकार न्यायवैशेषिक सिद्धान्तमें आत्मा स्वभावसे ज्ञानशून्य अथात् जड़ है। पर इन्द्रिय आदि बाह्य निमित्तोंसे उसमें औपाधिक ज्ञान उत्पन्न होता रहता है । इस ज्ञानका आश्रय बाह्य जड़ पदार्थ न होकर आत्मा होता है। एक बात विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है कि ये यद्यपि सभी आत्माओंको स्वरूपतः जड़ मानते है पर ईश्वर नामकी एक आत्माको नित्यज्ञानवाली भी स्वीकार करते हैं। ईश्वरमें स्वरूपतः अनाद्यनन्त ज्ञानकी सत्ता इन्हें इष्ट है।
वेदान्ती ज्ञान और चितिशक्ति दोनोंको जुदा जुदा मानकर चैतन्यको ब्रह्मगत तथा ज्ञानको अन्तःकारणनिष्ठ मानते हैं। इनके मतमें भी ज्ञान औपाधिक है और शुद्ध ब्रह्ममें उसका कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता।
मीमांसक ( भाट्ट ) ज्ञानको प्रात्मगत धर्म मानते हैं । ज्ञान और आत्मामें इन्हें कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध इष्ट है।
बौद्ध परम्परामें ज्ञान नाम या चित्तरूप है। मुक्त अवस्थामें यदि निरास्रवचित्तसन्तति अविशिष्ट भी रह जाय तो भी उसमें विषयपरिच्छेदक ज्ञानकी सत्ता नहीं रहती।
जैन परम्परामें इस विषयमें सभी लोगों की एक मति है कि ज्ञान आत्मगत स्वभाव या गुण है । और वह मुक्त अवस्थामें अपनी स्वाभाविक पूर्णदशामें बना रहता है।
जैन परम्पराके दोनों सम्प्रदायों में ज्ञानके मति श्रुत आदि पाँच भेद निर्विवाद प्रचलित हैं। (१) देखो-न्यायसू० १११११५। प्रश० भा० पृ० १७१।
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