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जयघवलासहित कषायप्रामृत
७. नयनिरूपण___जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि अनेकान्तदृष्टि जैनतत्त्वदर्शियोंकी अहिंसाका ही एक रूप है, जो विरोधी विचारोंका वस्तुस्थिति के आधारपर सत्यानुगामी समीकरण करती है। और उसी अनेकान्तदृष्टिका फलितवाद नयवाद है। स्याद्वाद तो उस अनेकान्तदृष्टिके वर्णनका वह निर्दोष प्रकार है जिससे वस्तुके स्वरूप तक अधिकसे अधिक पहुंच सकते हैं। वह भाषागत समताका एक प्रतीक है। अतः नयके वर्णनके पहिले वस्तुके स्वरूपका विचार कर लेना आवश्यक है जिसके आधारसे उस अहिंसामूलक अनेकान्तदृष्टिका विवेचन होता है।
जैन वास्तवमें अनन्तपदार्थवादी हैं। अनन्त आत्मद्रव्य, अनन्त पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालाणुद्रव्य इस तरह अनन्तानन्त
पदार्थे पृथक पृथक अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। किसी भी सत्का सर्वथा विनाश वस्तुका नहीं होता और न कोई नूतन सत् उत्पन्न ही होता है। जितने अनन्त सत् द्रव्य हैं स्वरूप उनमें धर्म अधर्म आकाश और कालाणु द्रव्य अपनी स्वाभाविक परिणतिमें परिणत
रहते हैं। परन्तु जीव और पुद्गल इन दो प्रकारके द्रव्योंमें स्वाभाविक और वैभाविक दोनों ही परिणमन होते हैं। शुद्ध जीवमें वैभाविक परिणमन न होकर स्वाभाविक परिणमन हो होता है जब कि शुद्ध पुद्गल परमाणु शुद्ध होकर भी फिर विभाव परिणमन करने लगता है।
प्रत्येक पदार्थ प्रतिसमय अपनी पूर्व पर्यायको छोड़कर नवीन पर्यायको धारण करता है। यह उसका स्वभाव है कि वह प्रतिसमय परिणमन करता रहे । इसतरह पदार्थ पूर्व पर्यायका विनाश उत्तर पर्यायका उत्पाद तथा ध्रौव्य इन तीन लक्षणोंको धारण करते हैं। ध्रौव्यका तात्पर्य इतना ही है कि प्रत्येक पदार्थ अपनी निश्चित धारामें ही परिणमन करता है वह किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यकी पर्याय रूपसे परिणमन नहीं करता। जैसे एक जीव अपनी ही उत्तरोत्तर पर्यायरूप प्रतिसमय परिणमन करता जायगा। वह न तो अजीव रूपसे परिणमन करेगा, और न अन्य जीव रूपसे ही। इस असांकयका प्रयोजक ही ध्रौव्य होता है। एक परमाणु द्रव्य परिणमन करता है तो उसमें उत्तर पर्याय होनेपर प्रथमका कोई भी अपरिवर्तित अंश अवशिष्ट नहीं रहता। वह अखंडका अखंड परिवर्तित होकर द्वितीय पर्यायकी शकलमें उपस्थित हो जाता है। तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि ध्रौव्य अंश क्या रहा ? इसका उत्तर ऊपर दिया जा चुका है कि उस परमाणुद्रव्यका अपनी ही धाराके उत्तरक्षणरूप होनेमें जो प्रयोजक स्वभाव है वही ध्रौव्य है। इसके कारण वह किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरके रूपमें परिणमन नहीं कर पाता। इसतरह प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इस त्रिलक्षणरूप है। यही जैनियोंके परिणामका लक्षण है । और इसी लक्षणके अनुसार प्रत्येक पदार्थ परिणामी है ।
__ योगदर्शन (३३१३) में जो परिणामका लक्षण पाया जाता है वह उक्त परिणामके लक्षणसे भिन्न है। इसका खंडन अकलङ्कदेवने राजवार्तिक (पृ० २२६) में किया है। योगदर्शनके लक्षणमें द्रव्यकी अवस्थिति सदाकाल मानकर उसमें पूर्वधर्मका विनाश और उत्तर धर्मका उत्पाद इसतरह धर्मों में ही उत्पाद और विनाश माने हैं। जब कि जैनके परिणाममें पर्यायोंके परिवर्तित होने पर अपरिवर्तिष्णु अंश कोई नहीं रहता जिसे अवस्थित कहा जाय । यदि पर्यायोंके बदलते रहने
(१) "अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्ती धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः।"
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