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प्रस्तावना
इस तरह जैनतत्त्वदर्शियोंने प्रत्येक वस्तुको उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक, सामान्य-विशेषात्मक या अनन्तधर्मात्मक स्वीकार किया है। अनन्तधर्मात्मकका तात्पर्य यह है कि जिनधर्मोमें हमें परस्पर विरोध मालूम होता है ऐसे अनेक विरोधी धर्म वस्तुमें रहते हैं। धर्मों में परस्पर विरोध होते हुए भी धर्मीकी दृष्टिसे वे अविरोधी हैं।
___ उस अनन्तधर्मा वस्तुमें सामान्यतः द्विमुखी कल्पनाएँ होती हैं। एक तो आत्यन्तिक अभेदकी ओर जाती है तथा दूसरी आत्यन्तिक भेदकी ओर । नित्य, व्यापी, एक, अखण्ड सत् रूपसे चरम अभेदकी कल्पना से ब्रह्मवादका विकास हुअा तथा क्षणिक, निरंश, परमाणु रूपसे अन्तिम भेदकी कल्पनासे क्षणिकवाद पनपा। इन दोनों आत्यन्तिक कोटियोंके बीचमें अनेक प्रकारसे पदार्थों का विभाजन करनेवाले न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, चार्वाक आदि दर्शन हैं। सभी दर्शनोंका अपना एक एक दृष्टिकोण है। और वे अपने दृष्टिकोणके अनुसार पदार्थको देखते तथा उसका निरूपण करते हैं। जैनदर्शनका अपना दृष्टिकोण स्पष्ट है । उसका कहना है कि वस्तुकी स्वरूपमर्यादा अनन्त है। उसमें सभी दृष्टियोंके विषयभूत धर्मोंका समावेश हो सकता है बशर्ते कि वे दृष्टियाँ ऐकान्तिक आग्रह न करें। प्रत्येक दृष्टि यह समझे कि मैं वस्तुके एक क्षुद्र अंशका स्पर्श कर रही हूँ, दूसरी दृष्टियाँ भी जो मुझसे विरुद्ध हैं, वस्तुके ही किसी एक अंशको छू रही हैं। इस तरह परस्पर विरोधी दृष्टिकोणोंका वस्तुस्थितिके अनुसार समन्वय करना जैनदर्शनका दृष्टिकोण है और इसी लिए उसमें नयचर्चाका प्रमुख स्थान है।
यह पहिले लिखा जा चुका है कि-विचारव्यवहार साधारणतया तीन भागोंमें बांटे जा सकते हैं-१ ज्ञानाश्रयी, २ अर्थाश्रयी, ३ शब्दाश्रयी। अनेक ग्राम्य व्यवहार या लौकिक व्यवहार
संकल्पके आधारसे ही चलते हैं। 'जैसे रोटी बनाने या कपड़ा बुनने की तैयारीके नयोंका समय रोटी बनाता हूँ, कपड़ा बुनता हूं, इत्यादि व्यवहारोंमें संकल्पमात्रमें ही रोटी आधार या कपड़ा व्यवहार किया गया है। इसी प्रकार अनेक प्रकारके औपचारिक व्यवहार
अपने ज्ञान या संकल्पके अनुसार हुआ करते हैं। दूसरे प्रकारके व्यवहार अर्थाश्रयी होते हैं-अर्थमें एक ओर एक, नित्य और व्यापी सन्मात्र रूपसे चरम अभेदकी कल्पना की जा सकती है तो दसरी ओर क्षणिकत्व परमाणत्व और निरंशत्वकी शिसे अन्तिम भेदकी। इन दोनों अन्तोंके बीच अनेक अवान्तर भेद और अभेदोंका स्थान है। अभेदकोटि औपनिषद् अद्वैतवादियोंकी है। दूसरी कोटि वस्तुकी सूक्ष्मतम वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिक-निरंश-परमाणुवादी बौद्धों की है। तीसरी कोटिमें पदार्थको अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लानेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि दर्शन हैं। तीसरे प्रकारके शब्दाश्रित व्यवहारोंमें भिन्नकालवाचक, भिन्न कारकोंमें निष्पन्न, भिन्न वचनवाले, भिन्नपर्यायवाले, विभिन्न क्रियावाचक शब्द एक अर्थको या अर्थकी एक पर्यायको नहीं कह सकते । शब्द भेदसे अर्थभेद होना ही चाहिए। इस तरह इन ज्ञान अर्थ और शब्दका आश्रय लेकर होनेवाले विचारोंके समन्वयके लिए नयदृष्टियोंका उपयोग है।
इनमें संकल्पाधीन यावत् ज्ञानाश्रित व्यवहारोंका नैगमनयमें समावेश होता है। प्रा० पूज्यपादने सर्वार्थसि० (११३३) में नैगमनयको संकल्पमात्रमाही ही बताया है। तत्त्वार्थभाष्य में भी अनेक ग्राम्य व्यवहारोंका तथा औपचारिक लोकव्यवहारोंका स्थान इसी नयकी विषयमर्यादा में निश्चित किया है।
प्रा० सिद्धसेनने अभेदग्राही नैगमका संग्रहनयमें तथा भेदग्राही नैगमका व्यवहार नयमें अन्तर्भाव किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे नैगमको संकल्पमात्रग्राही न मानकर अर्थग्राही स्वीकार करते हैं। अकलङ्कदेवने यद्यपि राजवार्तिकमें पूज्यपादका अनुसरण करके नैगमनयको
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