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जयधवलासहित कषायप्राभृत
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क्रोध आदेशकषायका विचार
३०१ श्रुतज्ञानका स्वरूप और भेद आदेशकषाय और स्थापनाकषायमें भेद
एकत्ववितर्कविचार ध्यानका स्वरूप मानादि प्रादेशकषायोंका विचार
३०२
पृथक्त्वविचारध्यानका स्वरूप उपर्युक्त कथन नैगमनयकी अपेक्षा है इसका प्रतिपातसांपरायिकका स्वरूप खुलासा
३०३ उपशामक सांपरायिकका स्वरूप रसकषायका विचार
क्षपकसांपरायिकका स्वरूप सूत्रादिमें स्यात शब्दके न रहनेपर भी वह संक्रामण संज्ञा किसकी है ग्राह्य है इसका खुलासा
३०४ अपवर्तन संज्ञा किसकी है कषायमें सप्तभंगी
३०८ उपशामक और क्षपकका स्वरूप नोकषायका विचार
३११ केवलज्ञान और केवलदर्शनोपयोगका अन्तर्मुउपर्यक्त कथन नैगम और संग्रहनयकी
हूर्त काल किस अपेक्षासे है इसका शङ्काअपेक्षा है इसका खुलासा ३११ समाधानपूर्वक खुलासा
३५१-३६० व्यवहारनयकी अपेक्षा कषायरस आदिका केवल ज्ञान और केवल दर्शनोपयोगके क्रमविचार
__ वादकी स्थापना और उसका समाधान ३५१ ऋजुसूत्रनय आदिकी अपेक्षा कषायरस आदि
केवल सामान्य और केवल विशेषका निराकरण ३५३ का विचार
समवायका खण्डन
३५४ नोआगमभाव क्रोधकषायका विचार
। अन्तरङ्ग पदार्थको दर्शन और बहिरङ्ग नोभागमभाव मानादिकषायोंकी सूचना
+ पदार्थको ज्ञान विषय करता है इसकी भाव कषायका निर्देशादि छह अनुयोग द्वारा
स्थापना कथन
३१७ । एक उपयोगवादकी स्थापना और उसका पाहुडका निक्षेप
३२२ समाधान तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यपाहडके भेद
३२३ केवलज्ञानसे केवल दर्शनको अभिन्न मानने में नोप्रागमभावपाहुडके भेद
दोष प्रशस्त पाहुडका उदाहरण
३२४ केवलदर्शनको अव्यक्त मानने में दोष अप्रशस्त पाहुडका उदाहरण
३२५ केवल ज्ञान अवस्थामे मतिज्ञानकी तरह पाहडशब्दकी निरुक्ति और मतान्तर
केवल दर्शन भी नहीं रहता है इस शंकाका अद्धापरिमाणनिर्देशके व्याख्यान करनेकी
समाधान प्रतिज्ञा
३२९ दर्शनका विषय अन्तरङ्ग पदार्थ मानने पर पन्द्रहवींसे लेकर बीसवीं गाथा तक छह
'जं सामण्णग्गहणं' इत्यादि गाथाके साथ गाथाओंद्वारा अद्धापरिमाणनिर्देशका
विरोध नहीं आता इसका खुलासा कथन
३३०-३६३ जिनका शरीर सिंह आदिके द्वारा खाया गया साकार और अनाकार उपयोगमें भेद
है उन केवलियाँके उपयोगकाल अन्तअवग्रह ज्ञानका स्वरूप
३३२ महर्तसे अधिक क्यों नहीं पाया जाता, अवाय और धारणामें भेद ३३२ इसका खुलासा
३६१ ईहा, अवाय और धारणाज्ञानका स्वरूप ३३६ तद्भवस्थ केवलीका काल कुछ कम पूर्वकोटि मतिज्ञानसे दर्शनोपयोगमें भेद
३३७ है फिर भी यहाँ अन्तर्मुहूर्तकाल क्यों कहा अव्यक्तग्रहण ही अनाकारग्रहण है ऐसा मानने
इसका खुलासा में दोष
चारित्रमोहनीयका उपशामक कौन कहलाता है ३६२ साकारोपयोग और अनाकारोपयोगका स्वरूप ३३८ चारित्रमोहनीयका क्षपक कौन कहलाता है ।
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