Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गां०१ ]
उवक्कमादिपरूवणं * णाणप्पवादस्स पुवस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स पंचविहो उवक्कमो। तं जहा-आणुपुव्वी, णामं, पमाणं, वत्तव्वदा, अत्थाहियारो चेदि ।
६. उपक्रम्यते समीपीक्रियते श्रोत्रा अनेन प्राभृतमित्युपक्रमः। किमहमुवकमो वुच्चदे ? ण; अणवगयणामाणुपुव्वि-पमाण-वत्तव्वत्थाहियारा मणुया किरियाफलढें ण पयटृति ति तेसिं पयट्टावणठं वुच्चदे ।
१०. संपहि एदस्स उवकमस्स पंचविहस्स परूवणटुं ताव गाहाचुण्णिमुत्तेहि सूचिदसुदक्खंधपरूवणं कस्सामो । तं जहा-णाणं पंचविहं मदि-सुदोहि-मणपञ्जव-केवल
* ज्ञानप्रवाद पूर्वकी दसवीं वस्तुके तीसरे प्राभृतका उपक्रम पाँच प्रकारका है। यथा-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अधिकार ।
६. जिसके द्वारा श्रोता प्राभृतको उप अर्थात् समीप करता है उसे उपक्रम कहते हैं। अर्थात् जिससे श्रोताको प्राभृतके क्रम, नाम और विषय आदिका पूरा परिचय प्राप्त हो जाता है वह उपक्रम कहलाता है।
शंका-उपक्रम किसलिये कहा जाता है ?
समाधान-जिन मनुष्योंने किसी शास्त्रके नाम, आनुपूर्वी, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार नहीं जाने हैं वे उस शास्त्रके पठन पाठन आदि क्रियारूप फलके लिये प्रवृत्ति नहीं करते हैं । अर्थात् नाम आदि जाने बिना मनुष्योंकी प्रवृत्ति प्राभृतके पठनपाठनमें नहीं होती है, अतः उनकी प्रवृत्ति करानेके लिये उपक्रम कहा जाता है ।
१०. अब पाँच प्रकारके इस उपक्रमका कथन करनेके लिये गाथासूत्र और चूर्णिसूत्रके द्वारा सूचित किये गये श्रुतस्कन्धका प्ररूपण करते हैं। वह इस प्रकार है--
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे ज्ञान पांच प्रकारका है। उनमेंसे जो ज्ञान पांच इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है वह मतिज्ञान है ।
(१) “सोवि उवक्कमो पंचविहो. . . . . . . ."-ध० सं० पृ० ७२। “से किं तं उवक्कमे ? छविहे पण्णते, तं जहा-णामोवक्कमे ठवणोवक्कमे दव्वोवक्कमे खेत्तोवक्कमे कालोवक्कमे भावोवक्कमे . . . 'अहवा उवक्कमे छविहे पण्णत्ते, तं जहा-आणुपुव्वी नाम पमाणं वत्तव्वया अत्थाहिगारे समोआरे।"-अनु० सू०६०, ७०। (२) "जण करणभूदेण णामप्पमाणादीहिं गंथो अवगम्मदे सो उवक्कमो णाम ।"-ध० आ० प०५३७॥ "प्रकृतस्यार्थतत्त्वस्य श्रोतबद्धौ समर्पणम् । उपक्रमोऽसौ विज्ञेयस्तथोपोद्घात इत्यपि ॥"-आदिपु० २।१०३। ___“सत्थस्सोवक्कमणं उवक्कमो तेण तम्मि व तओ वा। सत्थसमीवीकरणं आणयणं नासदेसम्मि ॥" उप सामीप्ये, क्रम पादविक्षेपे, उपक्रमणं दूरस्थस्य शास्त्रादिवस्तूनस्तैस्तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीपीकरणं न्यासदेशानयनं निक्षेपयोग्यताकरणमित्युपक्रमः, उपक्रान्तं ह्युपक्रमान्तर्गतभेदैविचारितं विक्षिप्यते नान्यथेति भावः । उपक्रम्यते वा निक्षेपयोग्यं क्रियतेऽनेन गरुवाग्योगेनेति उपक्रमः। अथवा, उपक्रम्यते अस्मिन शिष्यश्रवणभावे सतीत्युपक्रमः । यदि वा, उपक्रम्यते अस्माद् विनीतविनयविनयादित्युपक्रमः, विनयेनाराधितो हि गरुरुपक्रम्य निक्षेपयोग्यं शास्त्रं करोतीत्यभिप्रायः।"-वि० बृह. गा० ९११ । अनु० मलय०, सू० ५९ ।
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