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मंगलवियारो
संगादो । सरागसंजमो गुणसेढिणिज्जराए कारणं, तेण बंधादो मोक्खो असंखेज्जगुणोति सरागसंजमे मुणीणं वट्टणं जुत्तमिदि ण पच्चवद्वाणं कायव्वं; अरहंतणमोक्कारो संपहियबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ ति तत्थ वि मुणीणं पत्तिप्पसंगादो । उत्तं च
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'अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयडमदी ।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण ॥ २ ॥”
४. तेण सोवण - भोयण-पयाण-पच्चावण-सत्थपारंभादिकिरियासु नियमेण अरहंतणमोकारो कायव्वो ति सिद्धं । ववहारणयमस्सिदूण गुणहर भडारयस्स पुण एसो अहिप्पाओ, जहा - कीरेउ अण्णत्थ सव्वत्थ णियमेण अरहंतणमोक्कारो, मंगलफलस्स पारद्धकिरियाए अणुवलंभादो | एत्थ पुण नियमो णत्थि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो । दस अत्थविसेसस्स जाणावणङ्कं गुणहर भडारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं । होओ, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, मुनियोंके सरागसंयम के परित्यागका प्रसंग प्राप्त होनेसे उनके मुक्तिगमनके अभावका भी प्रसंग प्राप्त होता है ।
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यदि कहा जाय कि सरागसंयम गुणश्रेणी निर्जराका कारण है, क्योंकि, उससे बन्धकी अपेक्षा मोक्ष अर्थात् कर्मोंकी निर्जरा असंख्यातगुणी होती है, अतः सरागसंयममें मुनियोंकी प्रवृत्तिका होना योग्य है, सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अरहंत नमस्कार तत्कालीन बन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जराका कारण है, इसलिये सरागसंयमके समान उसमें भी मुनियोंकी प्रवृत्ति प्राप्त होती है । कहा भी है
" जो विवेकी जीव भावपूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अतिशीघ्र समस्त दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २ ॥ "
४. इसलिये सोना, खाना, जाना, वापिस आना और शास्त्रका प्रारंभ करना आदि क्रियाओंमें अरहंत नमस्कार अवश्य करना चाहिये । किन्तु व्यवहारनयकी दृष्टिसे गुणधर भट्टारकका यह अभिप्राय है कि परमागमके अतिरिक्त अन्य सब क्रियाओंमें अरहंतनमस्कार नियमसे करना चाहिये, क्योंकि, अरहंतनमस्कार किये विना प्रारंभ की हुई क्रियामें मंगलका फल नहीं पाया जाता है । अर्थात् सोना, खाना आदि क्रियाएँ स्वयं मंगलरूप नहीं हैं, अत: उनमें मंगलका किया जाना आवश्यक है । किन्तु शास्त्र के प्रारंभ में मंगल करनेका नियम नहीं है, क्योंकि, परमागमके उपयोग में ही मंगलका फल नियमसे प्राप्त हो जाता है । अर्थात् परमागमका उपयोग स्वयं मंगलस्वरूप होनेसे उसमें मंगलफलकी प्राप्ति अनायास हो जाती है । इसी अर्थविशेषका ज्ञान करानेके लिये गुणधर भट्टारकने ग्रंथके आदिमें मंगल नहीं किया है। (१) “गुणो गुणगारो तस्स सेढी ओली पंती गुणसेढी णाम " - ध० आ० प० ७४९ । (२) मूलाचा० ७।५। तुलना-"अरहंतनमोक्कारो जीवं मोएइ भवसहस्साओ । भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाहो य ॥ " -आ० नि० ९२३ । (३) कीरओ अ०, आ० ।
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