________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [१ पेज्जदोसविहत्ती विणासणहं । तं च परमागमुवजोगादो चेव णस्सदि । ण चेदमसिद्धं सुह-सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो । उत्तं च
"ओदइया बंधयरा उबसम-वय-मिस्सया य मोक्खयरा ।
___ भावो दु पारिणमिओ करणोभयवजिओ होइ ॥ १॥" ण च कम्मक्खए संते पारद्धकज्जविग्घरस विज्जाफलाणुव [व] त्तीए वा संभवो विरोहादो।
यदि कोई कहे कि परमागमके उपयोगसे कर्मोंका नाश होता है यह बात असिद्ध है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, यदि शुभ और शुद्ध परिणामोंसे कर्मोंका क्षय न माना जाय तो फिर कर्मोंका क्षय हो ही नहीं सकता है। कहा भी है
“औदयिक भावोंसे कर्मबन्ध होता है, औपशमिक, क्षायिक और मिश्र भावोंसे मोक्ष होता है । परन्तु पारिणामिकभाव बन्ध और मोक्ष इन दोनोंके कारण नहीं हैं ।। १॥”
विशेषार्थ- ऊपर समाधान करते हुए शुद्ध परिणामोंके समान शुभ परिणामोंको भी कर्मक्षयका कारण बतलाया है, पर इसकी पुष्टि के लिये प्रमाण रूपसे जो गाथा उद्धृत की गई है उसमें औदयिक भावोंसे कर्मबन्ध होता है यह कहा है । इस प्रकार उक्त दोनों कथनोंमें परस्पर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि, शुभ परिणाम कषाय आदिके उदयसे ही होते हैं क्षयोपशम आदिसे नहीं। इसलिये जब कि औदयिकभाव कर्मबन्धके कारण हैं तो शुभ परिणामोंसे कर्मोंका बन्ध ही होना चाहिये, क्षय नहीं । इसका समाधान यह है कि यद्यपि शुभ परिणाममात्र कर्मबन्धके कारण हैं फिर भी जो शुभ परिणाम सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिके समय होते हैं और जो सम्यग्दर्शन आदिके सद्भावमें पाये जाते हैं वे आत्माके विकासमें बाधक नहीं होनेके कारण उपचारसे कर्मक्षयके कारण कहे जाते हैं। इसीप्रकार क्षायोपशमिक भावोंमें भी प्रायः देशघाती कर्मोंके उदयकी अपेक्षा रहती है, इसलिये उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे आत्मामें जो विशुद्धि उत्पन्न होती है उसे यद्यपि उदयजन्य मलिनतासे पृथक् नहीं किया जा सकता है फिर भी वह मलिनता क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन आदिका नाश नहीं कर सकती है और न कर्मक्षयमें बाधक ही हो सकती है, इसलिये गाथामें क्षायोपशामिक भावको भी कर्मक्षयका कारण कहा है ॥
यदि कहा जाय कि परमागमके उपयोगसे कर्मोंका क्षय होने पर भी प्रारंभ किये हुए कार्यमें विनोंकी और विद्यारूप फलके प्राप्त न होनेकी संभावना तो बनी ही रहती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है । अर्थात् जब कि परमागमके उपयोगसे विघ्नके और विद्याफलके प्राप्त न होनेके कारणभूत कर्मोंका नाश हो जाता है तब फिर उन कर्मोंके कार्यरूप विघ्नका सद्भाव और विद्याफलका अभाव बना ही रहे यह कैसे संभव है ? कारणके अभावमें कार्य नहीं होता यह सर्वमान्य नियम है। अतः यह
(१)-लाणवत्तीए आ०, ता०, स०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org