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मंगलायरणं सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिबिंबं दीसइ वियसियसयवत्तगभगउरो वीरो ॥३॥ अंगंगवज्झणिम्मी अणाइमझंतणिम्मलंगाए । सुयदेवयअंबाए णमो सया चक्खुमइयाए ॥४॥ णमह गुणरयणभरियं सुअणाणामियजलोहगहिरमपारं।
गणहरदेवमहोवहिमणेयणयभंगभंगितुंगतरंगं ॥ ५ ॥ जिसके केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल दर्पणमें लोक और अलोक विशद रूपसे प्रतिबिम्बकी तरह दिखाई देते हैं अर्थात् झलकते हैं, और जो विकसित कमलके गर्भ अर्थात् भीतरी भागके समान समुज्वल अर्थात् तपाए हुए सोनेके समान पीतवर्ण हैं, वे वीर भगवान् जयवन्त हों ॥३॥
विशेषार्थ- यद्यपि चौबीस जिनदेवोंकी स्तुतिमें वीर भगवानकी स्तुति हो ही जाती है फिर भी वर्तमानमें महावीर जिनदेवका तीर्थ होनेसे श्री वीरसेन स्वामीने उनकी पृथक् स्तुति की है ॥ ३ ॥
जिसका आदि मध्य और अन्तसे रहित निर्मल शरीर, अंग और अंगबाह्यसे निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती अर्थात् जाग्रतचक्षु है ऐसी श्रुतदेवी माताको नमस्कार हो॥४॥
विशेषार्थ-श्रुत देवीकी स्तुति करते हुए वीरसेन स्वामीने प्रथम विशेषणके द्वारा यह प्रकट किया है कि श्रुत द्रव्यार्थिक दृष्टिसे अनादि-निधन है, उसका आदि, अन्त और मध्य नहीं पाया जाता है। तथा पर्यायार्थिक दृष्टिसे वह अंग और अंगबाह्यरूपसे प्रकट होता है। दूसरे विशेषणके द्वारा यह बतलाया है कि सन्मार्ग या मोक्षमार्गका दर्शन इस श्रुतके अभ्याससे ही हो सकता है, क्योंकि जो स्वयं नेत्रवान होता है उसका आश्रय लेनेसे ही सन्मार्गकी प्रतीति होती है । यहाँ श्रुतदेवीको माताकी उपमा दी गई है। इसका यह कारण है कि जिसप्रकार माता अपनी सन्तानके भरण, पोषण, शिक्षण, लालन-पालन आदिका पूरा ध्यान रखती हुई उसे दुर्गुणों और बुरे सहवाससे बचाती है उसीप्रकार इस श्रुतदेवीका आश्रय लेकर प्रत्येक प्राणी अपनी आत्मीक उन्नति करता हुआ कुपथसे दूर रहता है ॥४॥
जो सम्यग्दर्शन आदि अनेक गुणरूपी रत्नोंसे भरे हुए हैं, और श्रुतज्ञानरूपी अमित जलसमुदायसे गंभीर हैं, जिनकी विशालताका पार नहीं मिलता है और जो अनेक नयोंके उत्तरोत्तर भेदरूपी उन्नत तरंगोंसे युक्त हैं ऐसे गणधरदेवरूपी समुद्रको तुम लोग नमस्कार करो॥५॥
विशेषार्थ- गणधरदेव समुद्रके समान हैं। समुद्रमें रत्न होते हैं, उनमें भी अनेक गुणरूपी रत्न भरे हुए हैं। समुद्र अपार जलराशिसे पूर्ण अतएव खूब गहरा होता है, गणधरदेव भी श्रुतज्ञानरूपी जलसमुदायसे परिपूर्ण हैं, उनके ज्ञानकी थाह नहीं है।
(१) “पीतो गौरो हरिद्राभः" इत्यमरः । (२)-णिम्मि अणा-आ०
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