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जयधवलासहित कषायप्राभृत
इस तरह जैनका प्रत्येक सत् स्वतन्त्र द्रव्य है । दो सत् पदार्थों में रहनेवाला वास्तविक एक पदार्थ कोई नहीं है। जैसे न्याय वैशोषिक अनेक गो द्रव्योंमें रहने वाला एक गोत्व नामका
स्वतन्त्र सामान्य पदार्थ मानते हैं, या अनेक चेतन अचेतन द्रव्यों तथा गुण कर्मादिमें पदार्थकी एक सत्ता नामक स्वतन्त्र सामान्य पदार्थ मानते हैं, ऐसा अनेक पदार्थवृत्ति एक
सामान्य- पदार्थ जैनियोंके यहाँ नहीं है। जैन तो दो सत् पदार्थो में 'सत् सत्' इस अनुगत विशेषात्मकता प्रत्ययको सादृश्यनिमित्तक मानते हैं और यह सादृश्य उभयनिष्ठ न होकर प्रत्येकनिष्ठ
है। पदार्थों में दो प्रकारके अस्तित्व हैं—एक स्वरूपास्तित्व और दूसरा सादृश्यास्तित्व । स्वरूपास्तित्वके कारण प्रत्येक पदार्थ अपनी कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें 'यह वही है। इस एकत्व प्रत्यभिज्ञानका विषय होता है । 'देवदत्तः देवदत्तः' इस प्रकारके अनुगताकार प्रत्ययमें भी देवदत्तका अपनी पर्यायोंमें पाया जानेवाला स्वरूपास्तित्व ही प्रयोजक होता है। इस स्वरूपास्तित्वको ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं। सादृश्यास्तित्वके कारण भिन्न सत्ताक दो द्रव्योंमें 'गौ गौ' इत्यादि प्रकारके अनुगत प्रत्यय होते हैं। इसे तिर्यक सामान्य कहते हैं। इसी तरह दो भिन्न सत्ताक द्रव्योंमें विलक्षणताका प्रयोजक व्यतिरेक जातिका विशेष है तथा एक ही द्रव्यकी दो पर्यायोंमें विलक्षणताका कारण पर्याय जातिका विशेष है। इस तरह जैनियोंका पदार्थ उत्पाद व्यय-ध्रौव्यात्मक होनेके साथ उक्त प्रकारसे सामान्य-विशेषात्मक भी है।
भारतीय दर्शनों में पातञ्जल महाभाष्य (११२१) योगभाष्य (पृ० ३६६) मीमांसाश्लोकवार्तिक (पृ० ६१९) ब्रह्मसूत्रभास्करभाष्य, शास्त्रदीपिका (पृ० ३८७) आदिमें भी इसी उभयात्मक पदार्थका कथञ्चित् सामान्यविशेषात्मक या भिन्नाभिन्नात्मक रूपसे वर्णन मिलता है।
धर्मधर्मिभावके विषयमें साधारणतया पांच कोटियाँ दार्शनिकक्षेत्रमें स्वीकृत हैं- १ निरंश वस्तु वास्तविक है, उसमें धर्म अविद्या या संवृतिसे कल्पित हैं। २ वस्तु कल्पित है धर्म ही
वास्तविक हैं। ३ धर्म और वस्तु हैं तो दोनों वास्तविक पर वे जुदे जुदे हैं और धर्मधर्मिभाव- सम्बन्धके कारण धर्मों की धर्मी में प्रतीति होती है। ४ धर्म और धर्मी दोनों ही अवाका प्रकार स्तविक हैं। ५-धर्म और धर्मिका कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध है। पहिली कोटिको
वेदान्ती स्वीकार करता है। दूसरी कोटि बौद्धोंकी है। इनके मतमें धर्मोंकी आधारभूत वस्तु विकल्पकल्पित है। निरंश पर्यायक्षण ही वास्तविक हैं । इसी में संवृतिके कारण अनेक धर्मो की प्रतोति होती रहती है । वेदान्ती एक ब्रह्मके सिवाय अन्य घट पट आदि धर्मियोंको अविद्याकल्पित कहता है। तीसरो कोटिमें नैयायिक-वैशेषिक हैं, जो द्रव्य गुण आदि पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ता मानकर समवाय सम्बन्धसे गुणादिककी द्रव्यमें प्रतीति मानते हैं। चौथी कोटि तत्त्वोपलववादी और तथोक्तशून्यवादियोंकी है। पांचवा मत सांख्य योगपरम्परा, कुमारिलभट्टको परम्परा तथा विशेषतः जैन परम्परामें प्रख्यात है। जैनपरम्परा वस्तु में वास्तव अनन्तधर्मोंकी सत्ता स्वीकारती है, या यों कहिए कि अनन्तधर्ममय ही वस्तु है। इस अनन्तधमात्मक वस्तुको विभिन्न व्यक्ति अपने जुदे जुदे दृष्टिकोणोंसे देखते हैं और आहङ्कारिक वृत्तिके कारण अपने ज्ञानलवमें प्रतिबिम्बित वस्तुके एक करणको वस्तुका पूर्णरूप मान लेते हैं। और इस तरह वस्तुका यथाथज्ञान तो कर ही नहीं पाते पर अहङ्कारके कारण दूसरोंके दृष्टिकोणोंको मिथ्या कहकर हिंसात्मक अग्निको सुलगाते हैं। जैन तत्त्वदशियोंने प्रारम्भसे ही अहिंसकष्टि तथा यथार्थतत्त्वदर्शन होनेके कारण वस्तुके विराट स्वरूपको स्वीकार किया है। और उसका यथावत् ज्ञान करनेके लिए हम सबके ज्ञानकणोंको अपर्याप्त बताया है। और यह स्पष्ट बताया कि अनन्त ज्ञानोदधिमें ही वह अनन्तधर्मा पदार्थ साक्षात् समा सकता है, हमारे ज्ञानपल्वलोंमें नहीं। प्रत्युत हमारे ज्ञान कहीं कहीं तो उस विराट् पदार्थके विषयमें अन्यथा ही कल्पना कर लेते हैं।
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