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जयधवलासहित कषायप्राभृत संकल्पमात्रग्राही लिखा है फिर भी लघीयस्त्रय (का० ३६) में उन्होंने नैगमनयको अर्थके भेद को या अभेदको ग्रहण करनेवाला बताया है। इसीलिए इन्होंने स्पष्ट रूपसे नैगम आदि ऋजुसूत्रान्त चार नयोंको अर्थनय माना है।।
। अर्थाश्रित अभेदव्यवहारका, जो "आत्मैवेदं सर्वम्” आदि उपनिषद्वाक्योंसे व्यक्त होता है, परसंग्रहनयमें अन्तर्भाव होता है। यहाँ एक बात विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है किजैनदर्शनमें दो या अधिक द्रव्योंमें अनुस्यूत सत्ता रखनेवाला कोई सत् नामका सामान्यपदार्थ नहीं है। अनेक द्रव्योंका सद्रूपसे जो संग्रह किया जाता है वह सत्सादृश्यके निमित्तसे ही किया जाता है न कि सदेकत्वकी दृष्टिसे । हाँ, सदेकत्वकी दृष्टिसे प्रत्येक सत्की अपनी क्रमवर्ती पर्यायोंका और सहभावी गुणोंका अवश्य संग्रह हो सकता है। पर दो सत् में कोई एक अनुस्यूत सत्त्व नहीं है। इस परसंग्रहके आगे तथा एक परमाणुकी वर्तमान कालीन एक अर्थपर्यायसे पहिले होनेवाले यावत् मध्यवर्ती भेदोंका व्यवहारनयमें समावेश होता है। इन अवान्तर भेदोंको न्यायवैशेषिक आदि दर्शन ग्रहण करते हैं। अर्थको अन्तिम देशकोटि परमाणुरूपता तथा चरम कालकोटि क्षणमात्रस्थायिताको ग्रहण करनेवाली बौद्धदृष्टि ऋजुसूत्रकी परिधिमें आती है। यहाँ तक अर्थको सामने रखकर भेद तथा अभेदको ग्रहण करने वाले अभिप्राय बताये गए हैं। इसके आगे शब्दाश्रित विचारोंका निरूपण किया जाता है।
काल, कारक, संख्या तथा धातुके साथ लगनेवाले भिन्न भिन्न उपसर्ग आदिकी दृष्टिसे प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंके वाच्य अर्थ भी भिन्न भिन्न हैं, इस कालादिभेदसे शब्दभेद मानकर अर्थभेद माननेवाली दृष्टिका शब्दनयमें समावेश होता है। एक ही साधनमें निष्पन्न तथा एक कालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं, इन पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेद माननेवाला समभिरूढनय है। एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तक्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टिसे सभी शब्द क्रियावाची है। गुणवाचक शुक्लशब्द भी शुचिभवनरूप क्रियासे, जातिवाचक अश्वशब्द आशुगमनरूप क्रियासे, क्रियावाचक चलतिशब्द चलनेरूप क्रियासे, नामवाचक यदृच्छाशब्द देवदत्त आदि भी 'देवने इसको दिया' इस क्रियासे निष्पन्न हुए हैं। इस तरह ज्ञान, अर्थ और शब्दको आश्रय लेकर होनेवाले ज्ञाताके अभिप्रायोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है। यह समन्वय एक खास शर्त पर हुआ है। वह शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि या अभिप्राय अपने प्रतिपक्षी अभिप्रायका निराकरण नहीं कर सकेगा। इतना हो सकता है कि जहाँ एक अभिप्रायकी मुख्यता रहे वहाँ दूसरा अभिप्राय गौण हो जाय । यही सापेक्ष भाव नय का प्राण है, इसीसे नय सुनय कहलाता है । प्रा० समन्तभद्र आदिने सापेक्षको सन्नय तथा निरपेक्षको दुर्नय बताया ही है।
इस संक्षिप्त कथनमें यदि सूक्ष्मतासे देखा जाय तो दो प्रकारकी दृष्टियाँ ही मुख्यरूपसे कार्य करती हैं-एक अभेददृष्टि और दूसरो भेददृष्टि । इन दृष्टियोंका आलम्बन चाहे ज्ञान हो या अर्थ अथवा शब्द, पर कल्पना भेद या अभेद दो ही रूपसे की जा सकती है। उस कल्पनाका प्रकार चाहे कालिक, दैशिक या स्वारूपिक कुछ भी क्यों न हो। इन दो मूल आधारभूत दृष्टियोंको द्रव्यनय और पर्यायनय कहते हैं । अभेदको ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है तथा भेदग्राही पर्यायार्थिकनय है। इन्हें मूलनय कहते हैं, क्योंकि समस्त नयोंके मूल आधार यही दो नय होते हैं। नैगमादिनय तो इन्हींकी शाखा-प्रशाखाएँ हैं। द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, निश्चयनय, शुद्धनय आदि शब्द द्रव्याथिकके अर्थमें तथा उत्पन्नास्तिक, पर्यायास्तिक, व्यवहारनय, अशुद्धनय मादि पर्यायार्थिकके अर्थमें व्यवहृत होते हैं।
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