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जयधवलासहित कषायप्राभृत
नमस्कार क्रिया तथा उससे होनेवाली पुत्रोत्पत्ति आदि फल ये सब होते हैं उस प्रकारके आकार, अभिप्राय, बुद्धि, क्रिया और फल नामेन्द्रसे तथा द्रव्येन्द्रमें नहीं देखे जाते। जिसप्रकार द्रव्य आगे जाकर भावपरिणतिको प्राप्त हो जाता है या भावपरिणतिको प्राप्त था उसप्रकार नाम और स्थापना नहीं। द्रव्य भावका कारण है तथा भाव द्रव्यकी पर्याय है उसतरह नाम और स्थापना नहीं। जिसप्रकार भाव तत्पर्यायपरिणत या तदर्थोपयुक्त होता है, उसप्रकार द्रव्य नहीं । अतः इन चारोंमें परस्पर भेद है।
कौन निक्षेप किस नयसे अनुगत है इसका विचार अनेक प्रकारसे देखा जाता है। श्रा० सिद्धसेन और पूज्यपाद सामान्यरूपसे द्रव्यार्थिकनयोंके विषय नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन
निक्षेपोंको तथा पर्यायार्थिकनयोंके विषय केवल भावनिक्षेपको कहते हैं । इतनी विशेषता निक्षेपनय- है कि सिद्धसेन, संग्रह और व्यवहारको द्रव्यार्थिकनय कहते हैं, क्योंकि इनके मतसे योजना नैगमनयका संग्रह और व्यवहारमें अन्तर्भाव हो जाता है। और पूज्यपाद नैगमनयको
स्वतन्त्र नय माननेके कारण तीनोंको द्रव्यार्थिकनय कहते हैं। दोनोंके मतसे ऋजुसूत्रादि चारों ही नय पर्यायार्थिक हैं। अतः इनके मतसे ऋजुसूत्रादि चार नय केवल भावनिक्षेपको विषय करनेवाले हैं और नैगम, संग्रह और व्यवहार नाम, स्थापना और द्रव्यको विषय करते हैं।
आ० पुष्पदन्त भूतबलिने-षट् खंडागम प्रकृति अनुयोद्वार प्रावि (पृ० ८६२) में तथा प्रा० यतिवृषभने कषायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंमें इसका कुछ विशेष विवेचन किया है। वे नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीनों नयों में चारों ही निक्षेपोंको स्वीकार करते हैं। भावनिक्षेपके विषयमें आ० वीरसेनने लिखा है कि कालान्तरस्थायी व्यञ्जन पर्यायकी अपेक्षासे जो कि अपने कालमें होनेवाली अनेक अर्थपर्यायोंमें व्याप्त रहनेके कारण द्रव्यव्यपदेशको भी पा सकती है, भावनिक्षेप बन जाता है। अथवा, द्रव्यार्थिकनय भी गौणरूपसे पर्यायको विषय करते हैं अतः उनका विषय भावनिक्षेप हो सकता है। भावका लक्षण करते समय प्रा० पूज्यपादने वर्तमानपर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहा है। इस लक्षणमें द्रव्य विशेष्य है तथा वर्तमानपर्याय विशेषण, अतः ऐसा वर्तमानपर्यायसे उपलक्षित द्रव्य द्रव्यार्थिकनयोंका विषय हो ही सकता है।
ऋजुसूत्रनय स्थापनाके सिवाय अन्य तीन निक्षेपोंको विषय करता है। चूंकि स्थापना सादृश्यमूलक अभेदबुद्धिके आधारसे होती है और ऋजुसूत्रनय सादृश्यको विषय नहीं करता अतः स्थापना निक्षेप इसकी दृष्टिमें नहीं बन सकता । कालान्तरस्थायी व्यञ्जनपर्यायको वर्तमानरूपसे ग्रहण करनेवाले अशुद्ध ऋजुसूत्रनयमें द्रव्यनिक्षेप भी सिद्ध हो जाता है। इसीतरह वाचक शब्दकी प्रतीतिके समय उसके वाच्यभूत अर्थकी उपलब्धि होनेसे ऋजुसूत्रनय नामनिक्षेपका भी स्वामी हो जाता है।
तीनों शब्दनय नाम और भाव इन दो निक्षेपोंको विषय करते हैं। इन शब्दनयोंका विषय लिङ्गादिभेदसे भिन्न वर्तमानपर्याय है अतः इनमें अभेदाश्रयी द्रव्यनिक्षेप नहीं बन सकता।
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विशेषावश्यकभाष्यमें ऋजुसूत्रनयको द्रव्यार्थिक मानकर ऋजुसूत्रनयमें भी चारों ही निक्षेप मानते हैं। वे ऋजुसूत्रनयमें स्थापना निक्षेप सिद्ध करते समय लिखते हैं कि जो ऋजुसूत्रनय निराकार द्रव्यको भावहेतु होनेके कारण जब विषय कर लेता है तब
(१) सन्मति० २६ । (२) सर्वार्थसि० ११६। (३) कषायपाहुड चु० जयधवल. पु० २५९-२६४ (४) धवला. पु०१पृ० १४, जयधवला पृ० २६०। (५) जयधवला प० २६३ । धवला पु०१ पृ० १६ । (६) गा० २८४७-५३। देखो नयोप० श्लो० ८३-जैतर्कभा० पृ० २१।
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