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प्रस्तावना
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शाब्दिक विकल्प होते हैं उसप्रकार से केवलीके ज्ञान में विकल्प नहीं होते। उसके ज्ञानदर्पण में संसारके यावत् पदार्थ युगपत् प्रतिबिम्बित होते रहते हैं । पदार्थोंके जो भी निजीरूप हैं वे उस ज्ञानमें झलके बिना नहीं रह सकते ।
० कुन्दकुन्दने नियमसार की इस गाथामें सर्वज्ञताके विषय में अपना दृष्टिकोण नयोंकी दृष्टिसे बताया है ।
" जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥ "
अर्थात् केवली भगवान् व्यवहारनयसे संसार के सब पदार्थोंको जानते और देखते हैं, पर निश्चय से केवलज्ञानी अपनी आत्माको जानता और देखता है । इसका तात्पर्य है कि ज्ञानको परपदार्थोंका जाननेवाला और देखनेवाला कहना भी व्यवहार की मर्यादा में है निश्चयसे तो वह स्वस्वरूपनिमग्न रहता है । निश्चयनयकी भूतार्थता और परमार्थता तथा व्यवहारनयकी प्रभूतार्थताको सामने रखकर यदि विचार किया जाय तो आध्यात्मिक दृष्टिसे पूर्णज्ञानका पर्यवसान आत्मज्ञानमें ही होता है । ० कुन्दकुन्दका यह वर्णन वस्तुतः क्रान्तदर्शी है ।
श्लोक
सर्वज्ञता सिद्ध करनेके लिए वीरसेनस्वामीने अन्य अनेक युक्तियोंके साथ ही यह महत्वपूर्ण उद्धृत किया है
"ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धरि । दाग्नर्वाहकों न स्यादसति प्रतिबन्धरि ॥"
इस श्लोक में सर्वज्ञता के आधारभूत वे दो मुद्दे बड़ी मार्मिक उपमासरणिसे बताए गए हैं जिनके ऊपर सर्वज्ञताका महाप्रासाद खड़ा होता हैं । पहिले तो यह कि आत्मा ज्ञानस्वरूप होनेसे 'ज्ञ' है और दूसरा यह कि उसके प्रतिबन्धक कर्म हट जाते हैं। प्रतिबन्धक कर्मके नष्ट हो जानेपर ज्ञानस्वभाववाला आत्मा किसी भी ज्ञेयमें अज्ञ कैसे रह सकता है ? अग्निमें जलाने की शक्ति हो और प्रतिबन्धक हट गए हों तब वह दाह्यपदार्थों को क्यों न जलायगी ?
दूसरी महत्त्वपूर्ण युक्ति जो वीरसेनस्वामीने दी है. अभी तकके उपलब्ध जैनवाङ्मय में अन्यत्र हमारे देखने में नहीं आई । वह युक्ति है केवलज्ञानको स्वसंवेदनसिद्ध बताना । उन्होंने दार्शनिक विश्लेषण के साथ लिखा है कि- देखो, हम लोगोंको जिसतरह घट पट आदि अवयवी पदार्थोंका साँव्यवहारिक प्रत्यक्ष उसके कुछ हिस्सों को देखकर ही होता है । उसके सम्पूर्ण भीतर बाहर के अवयवों का प्रत्यक्ष करना हम लोगोंको शक्य नहीं है । उसी तरह केवलज्ञानरूपी अवयवीका प्रत्यक्ष भी हम लोगोंको उसके कुछ मतिज्ञानादि अवयवोंके स्वसंवेदनप्रत्यक्ष के द्वारा हो जाता है । केवलज्ञान अवयवी अपने मतिज्ञानादि अवयवोंके स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा हमारे सांव्यवहारिक स्वसंवेदन प्रत्यक्षका विषय होता है । केवलज्ञान तथा मतिज्ञानादिमें अवयवश्रवयविभावकी कल्पना करके उसे प्रत्यक्षसिद्ध बताना वीरसेनस्वामीकी बहुमुखी प्रतिभाका ही कार्य है ।
५ कवलाहारवाद
'केवली कवलाहार करते हैं या नहीं" यह विषय आज जितने और जैसे विवादका बन गया है शायद दर्शनयुगके पहिले उतने विवादका नहीं रहा होगा । 'सयोग केवली तक जीव आहारी होते हैं यह सिद्धान्त दि० श्वे० दोनों परम्पराओंको मान्य है क्योंकि—
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(१) गा० १५८ ।
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( २ ) यह श्लोक योगबिन्दुमें कुछ पाठभेदसे विद्यमान है ।
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