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जयघवलासहित कषायप्राभृत
को जानता है। इस परम्पराका, जिसकी झलक “य आत्मवित् स सर्ववित्" इत्यादि उपनिषदोंमें भी पाई जाती है, व्याख्यान करते हुए लिखते हैं कि-जो त्रिकाल त्रिलोकवर्ती पदार्थों को नहीं जानता वह पूरीतरह एकद्रव्य को नहीं जानता, और जो अनन्तपर्यायवाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह सबको कैसे जान सकता है ? जैसे घटज्ञानमें घटको जाननेकी शक्ति है। जो मनुष्य घट को जानता है वह अपने घटज्ञानके द्वारा घट पदार्थको जाननेके साथ ही साथ घटको जाननेकी शक्ति रखनेवाले घटज्ञानके स्वरूपको भी 'घटज्ञानवानहम् ' इस सहव्यवसायसे जानता है । इसीतरह जो व्यक्ति घट जाननेकी शक्ति रखनेवाले घटज्ञानका यथावत् स्वरूप परिच्छेद करता है वह घट को तो अर्थान ही जान लेता है क्योंकि उस शक्तिका यथावत् विश्लेषणपूर्वक परिज्ञान विशेषणभूत घटको जाने विना हो ही नहीं सकता। इसीप्रकार
आत्मामें संसारके अनन्त ज्ञेयोंके जानने की शक्ति है। अतः जो संसारके अनन्त शेयोंको जानता है वह अनन्त ज्ञेयोंके जाननेकी शक्तिके आधारभूत आत्मा या पूर्ण ज्ञान को भी स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा जानता है । और जो अनन्त ज्ञेयोंके जाननेकी अनन्त शक्ति रखनेवाले आत्मा या पूर्णज्ञानके स्वरूपको यथावत् विश्लेषण पूर्वक जानता है वह उन शक्तियोंके उपयोगस्थानभूत अनन्त पदार्थों को भी जान ही लेता है। जैसे जो व्यक्ति घटप्रतिबिम्बाकान्त दर्पण को जानता है वह घट को भी जानता है तथा जो घट को जानता है वहीं दर्पणमें आए हुए घटप्रतिबिम्बका विश्लेषणपूर्वक यथावत् परिज्ञान कर सकता है।
जैन तर्कग्रन्थों में यह बताया है कि प्रत्येकपदार्थ स्वरूपसे सत् है स्वेतर पररूपोंसे असत् है। अर्थात् प्रत्येकपदार्थमें जिसप्रकार स्वरूपादिचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तित्व है उसी तरह स्वसे भिन्न अनन्त पररूपांकी अपेक्षा नास्तित्व भी है। अतः किसी भी एक पदार्थके पूरे विश्लेषण पूर्वक यथावत् परिज्ञानके लिए जिसप्रकार उसके स्वरूपास्तित्वका परिज्ञान आवश्यक है उसीतरह उस पदार्थमें रहनेवाले अनन्त पररूपोंके नास्तित्वोंके ज्ञानमें प्रतियोगिरूपसे अनन्त पररूपोंका ज्ञान भी अपेक्षित हो जाता है। इसलिये भी यह सिद्ध होता है कि विवक्षित एक पदार्थका यथावत् पूर्णज्ञान संसारके अनन्त पदार्थों के ज्ञानका आविनाभावी है जिसप्रकार कि संसारके अनन्त पदार्थों का ज्ञान उस विवक्षित पदार्थके ज्ञानका अविनाभावी है।।
इस तरह हम जैन परम्परामें प्रारम्भसे ही मुख्य अर्थ में सर्वज्ञता का समर्थन पाते हैं। उसमें न तो बौद्ध परम्पराकी तरह धर्मज्ञता और सर्वज्ञता का विश्लेषण ही किया है और न योगादि परम्पराओंकी तरह उसे विभूतिके रूपमें ही माना है। क्योंकि मुख्य सर्वज्ञता मान लेने पर धर्मज्ञता तो उसीके अन्तर्गत सिद्ध हो जाती है। तथा ज्ञानको आत्माका निजी मूलस्वभाव मान लेनेसे उसका विकसितरूप सर्वज्ञता योगजविभूति न होकर स्वाभाविक पूर्णतारूप होती है। जो अनन्तकाल तक जीवन्मुक्त अवस्थाकी तरह मुक्त अवस्थामें भी बनी रहती है। यह अवश्य है कि जिसप्रकार ऋमिक क्षायोपशमिक ज्ञानेन्मे यह घट है, यह पट है, इत्यादि सखण्ड रूपसे
(१) श्वे. आचारांगसूत्र (सू० १२३) में "जे एणं जाण से सव्वं जाणड । जे सव्वं जाणा से एग जाणइ" यह सूत्र है । तथा इसी प्राशय का निम्नलिखित श्लोक प्रवचनसारको जयसेनीय टीका (पृ० ६४) में तथा इससे भी पहिले तत्त्वोपप्लवसिंह (पृ० ७९) एवं न्यायवातिक तात्पर्यटीकामें उद्धृत है
"एको भावः सर्वभावस्वभावः सर्वे भावा एकभावस्वभावाः।
एको भावस्तत्वतो येन बुद्धः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः॥" इनका अभिप्राय है कि "जो एक को जानता है वह सब को जानता है तथा जो सब को जानता है वह एकको जानता है।
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