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जयधवलासहित कषायप्राभूत
प्रमाणा प्राचारादिग्रन्था गीयन्ते तदिह गाते तस्यैव द्वादशाङ्गतपरिमाणेऽधिकृतत्वात्, श्रुतभेवानामेव चेह प्रस्तुतत्वात् । तस्य च पदस्य तथाविधाम्नायाभावात् प्रमाणं न ज्ञायते।"
इस तरह श्वे. टीकाकार ऐसी आम्नायसे अपरिचित मालूम होते हैं जिसमें कि अंग ग्रन्थोंके मापमें प्रयोजक पदके अक्षरोंका परिमाण बताया गया है। दि० ग्रन्थोंमें वैसी आम्नाय पहिलेसे देखी जाती है । सकलश्रुतकी अक्षरसंख्या निकालने का जो प्रकार दिगम्बर परम्परामें है किप्रत्येक अक्षर ६४, और इनके एकसंयोगी आदि चोंसठ संयोगी जितने अक्षर हो सके उतने ही श्रुतके सकल अक्षर होते हैं वैसा ही प्रकार श्रुतज्ञानके समस्त भेदोंके निकालनेका श्वे० परम्परामें भी आवश्यकनियुक्ति की निम्नलिखित गाथा (१७ ) से सूचित होता है।
"पत्तयमक्खराइं अक्खरसंजोगजत्तिया लोए ।
एवइया सुयनाणे पयडीयो होति नायव्वा ॥" ज्ञानकी उस परिपूर्ण निरावरण अवस्थाको केवल ज्ञान कहते हैं जिसमें यावज्ज्ञेय प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। भारतीय परम्पराओं में केवल ज्ञान या सर्वविषयक ज्ञानके विषयमें अनेक मतभेद पाए
जाते हैं। चार्वाक और मीमांसकको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनों में किसी न किसी रूपमें केवलज्ञान केवलज्ञान या सर्वविषयकज्ञान माना गया है। चार्वाक और मीमांसकोंके भी केवल ज्ञान
के निषेध करनेके जुदे जुदे दृष्टिकोण हैं। चार्वाक अतीन्द्रिय पदार्थ विषयक ज्ञान ही नहीं मानता है। उसका तो एकमात्र प्रत्यक्षप्रमाण इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है जो दृश्यजगत में ही सीमित रहता है। मीमांसक अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान मानता तो है पर ऐसा ज्ञान वह वेदके द्वारा ही मानता है साक्षात् अनुभवके रूपमें नहीं । शवरऋषि शाबरभाष्य (१११।५) में स्पष्ट शब्दोंमें वेदके द्वारा अतीन्द्रियपदार्थविषयक ज्ञान स्वीकार करते हैं । मीमांसकको सर्व विषयकज्ञानमें भी विवाद नहीं है। उसे अतीन्द्रिय पदार्थों का वेदके द्वारा तथा अन्य पदार्थोंका यथासंभव प्रत्यक्षादिप्रमाणों द्वारा परिज्ञान मानकर किसी भी पुरुषविशेष में सर्वविषयकज्ञान मानने में कोई विरोध नहीं। उसका विरोध तो धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को साक्षात् प्रत्यक्षज्ञानके द्वारा जानने में है। क्योंकि वह धर्मके विषयमें किसी भी पुरुषके प्रत्यक्षज्ञानका हस्तक्षेप स्वीकार नहीं कर सकता। यही एक ऐसा विषय है जिसमें वेदका निर्वाध अधिकार है। अतः सर्वज्ञविरोधी चार्वाक और मीमांसकोंके दृष्टिकोणोंका आधार हो मूलतः भिन्न है।
न्यायवैशेषिक परम्परामें योगिज्ञान स्वीकार तो किया है पर वह प्रत्येक मोक्ष जानेवाले व्यक्तिको अवश्य प्राप्तव्य नहीं है। इनके यहाँ योगी दो प्रकारके हैं-युक्तयोगी २ युञ्जानयोगी। युक्तयोगीको अपने ज्ञानबलसे वस्तुओंका सर्वदा भान होता रहता है जब कि युञ्जानयोगियोंको
(१) मनि श्री कल्याणविजयजीने श्रमणभगवान महावीर (५० ३३४-३३५) में दिगम्बराचार्य प्ररूपित पदपरिभाषाको एकदम अलौकिक निरी कल्पना तथा मनगढन्त बताया है। उन्हें आ० मलयगिरिके इस उल्लेखको ध्यानसे देखना चाहिए । वे नियुक्तिकी "पत्तेयमक्ख राई" आदि गाथाकी ओर भी दृष्टिपात करें। उन्हें इनसे ज्ञात हो सकेगा कि क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराके आचार्योंका श्रतज्ञानकी पदसंख्या और पदपरिभाषाके विषयमें प्रायः समान मत है। हाँ, श्वे० टीकाकार उस परम्परासे अपने को अरिचित बताते हैं जब कि दिगम्बराचार्य उसका निर्देश करते हैं। क्या उनका उस प्राचीन परम्परासे परिचित होना ही निरी कल्पनाकी कोटिमें आता है ?
(२) "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं मूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवजातीयकमर्थमवगमयितुमलं नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।" (३) “यदि षडभिः प्रमाणः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते"-मी० श्लो० चो० श्लो० १११।
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