Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभृत
क्रमशः एक एक तीर्थंकरका स्मरण किया है । जैसे प्रथम अधिकारके अन्तमें आदिनाथको नमस्कार किया है। दूसरे अधिकारके आदिमें अजितनाथको और अन्तमें सम्भवनाथको नमस्कार किया है। इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक अधिकारके आदि और अन्तमें एक एक तीर्थंकरको नमस्कार किया है। इस तरह नौवें अधिकारके प्रारम्भतक १६ तीर्थंकरोंका स्तवन हो जाता है। शेष रह जाते हैं आठ तीर्थङ्कर । उन आठोंका स्तवन नौवें अधिकारके अन्तमें किया है। उसमें भगवान महावीरके स्तवनकी "एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं" आदि गाथा वही है जो कुन्दकुन्दके प्रवचनसारके प्रारम्भमें पाई जाती है। अब प्रश्न यह है कि इस गाथाका रचयिता कौन है- कुन्दकुन्द या यतिवृषभ ?
- प्रवचनसारमें इस गाथाकी स्थिति ऐसी है कि वहांसे उसे पृथक नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस गाथामें भगवान महावीरको नमस्कार करके उससे आगेकी गाथा 'सेसे पुण तित्थयरे' में शेष तीर्थङ्करोंको नमस्कार किया गया है। यदि उसे अलग कर दिया जाता है तो दूसरी गाथा लटकती हुई रह जाती है। कहा जा सकता है कि इस गाथाको त्रिलोकप्रज्ञप्तिसे लेकर भी उसके आधारसे दूसरी गाथा या गाथाएँ ऐसी बनाई जा सकती हैं जो सुसम्बद्ध हों। इस कथनपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या मंगलगाथा भी दूसरे ग्रन्थसे उधार ली जा सकती है ? किन्तु यह प्रश्न त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी ओरसे भी किया जा सकता है कि जब ग्रन्थकारने तेईस तीर्थङ्करोंके स्तवनकी गाथाओंका निर्माण किया तो क्या केवल एक गाथाका निर्माण वे स्वयं नहीं कर सकते थे ? अतः इन सब आपत्तियों और उनके परिहारोंको एक
ओर रखकर यह देखनेकी जरूरत है कि स्वयं गाथा इस सम्बन्धमें कुछ प्रकाश डालती है या नहीं ? हमें गाथाके प्रारम्भका 'एष' पद त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारकी दृष्टिसे उतना संगत प्रतीत नहीं होता जितना वह प्रवचनसारके कर्ताकी दृष्टिसे संगत प्रतीत होता है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें प्रथम तो अन्य किसी तीर्थङ्करके स्तवनमें 'एष' पद नहीं आया है । दूसरे नमस्कारको समाप्त करते हुए मध्यमें वह इतना अधिक उपयुक्त नहीं जंचता है जितना प्रारम्भ करते हुए जंचता है। तीसरे इस गाथाके बाद 'जयउ जिणवरिंदो' आदि लिखकर 'पणमह चउवीसजिणे' आदि गाथाके द्वारा चौबीसों तीर्थङ्करोंको नमस्कार किया गया है। उधर प्रवचनसारमें उक्त गाथाके द्वारा सबसे प्रथम महावीर भगवानको नमस्कार किया गया है और उसके पश्चात् 'सेसे पुण तित्थयरे' के द्वारा शेष तीर्थङ्करोंको नमस्कार किया गया है। शेष तीर्थङ्करोंको नमस्कार न करके पहले महावीरको नमस्कार क्यों किया ? इसका उत्तर गाथाका 'तित्थं धम्मस्स कत्तारं' पद देता है। चूंकि वर्तमानमें प्रचलित धर्मतीथके कर्ता भगवान महावीर ही है इसलिये उन्हें पहले नमस्कार करके 'पण, उसके बाद शेष तीर्थङ्करोंको नमस्कार करना उचित ही है। प्रवचनसारमें पांच गाथाओंका कलक है अतः उक्त प्रथम गाथाके 'एष पदकी अनुवृत्ति पांचवी गाथाके अन्तके 'उपसंपयामि सम्म'तक जाती है और बतलाती है कि वह मैं इन सबको नमस्कार करके वीतरागचरित्रको स्वीकार करता हूँ। इस सम्बन्धमें अधिक लिखना व्यर्थ है, दोनों स्थलांको देखनेसे ही विद्वान पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि उक्त गाथा किस ग्रन्थकी हो सकती है ? इसके सिवा यदि प्रवचनसारकी यही एक गाथा त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाई जाती तो भी एक बात थी, किन्तु इसके सिवा भी अनेकों गाथाएं त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाई जाती हैं। उनमेंसे कुछ गाथाओंको प्राचीन मानकर दरगुजर किया जा सकता है किन्तु कुछ गाथाएं तो ऐसी हैं जो प्रवचनसारमें ही पाई जाती हैं और उसमें उनकी स्थिति आवश्यक एवं उचित है। जैसे, सिद्धलोक अधिकारके अन्तमें सिद्धपदकी प्राप्तिके कारणभूत कर्मोंको बतलानेवाली जो गाथाएं हैं उनमें अनेक गाथाएं प्रवचनसारकी ही हैं, वे अन्य किसी ग्रन्थमें नहीं पाई जाती। अतः ये मानना ही पड़ेगा कि
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