Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
प्रस्तावना
धवला और जयधवलाके रचनाकालसे आचार्य वीरसेन और जिनसेनके कार्यकालपर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यह तो स्पष्ट ही है कि धवलाके समाप्तिकाल श० सं० ७३८
में वीरसेन जीवित थे। धवलाको समाप्त करके उन्होने जयधवलाको हाथमें लिया। वीरसेन किन्तु उसका पूर्वार्ध ही उन्होने बना पाया। उत्तरार्धकी रचना उनके शिष्य जिन
और सेनने पूर्ण की। जिस समय जयधवलाकी प्रशस्तिके ३५ वें श्लोकमें यह पढ़ते हैं कि जिनसेनका गुरुकी आज्ञासे जिनसेनने उनका यह पुण्यशासन लिखा तो ऐसा लगता है कि कार्यकाल शायद उस समय भी स्वामी वीरसेन जीवित थे किन्तु अतिवृद्ध हो जानेके कारण
जयधवलाके लेखनकार्यको चलाने में वे असमर्थ थे, इस लिये उन्होंने इसकार्यको पूर्ण करनेका भार अपने सुयोग्य शिष्य जिनसेनको सौंप दिया था। किन्तु जब उसी प्रशस्तिके ३६वें श्लोकमें हम जिनसेन स्वामीको यह कहते हुए पाते हैं कि गुरुके द्वारा विस्तारसे लिखे गये पूर्वार्धको देखकर उसने (जिनसेनने) पश्चार्धको लिखा तो चित्तको एक ठेस सी लगती है और अन्तःकरणमें एक प्रश्न पैदा होता है कि यदि वीरसेन स्वामी उस समय जीवित होते तो जिनसेनको उनके बनाये हुए पूर्वाधको ही देखकर पश्चाधके पूरा करनेकी क्या आवश्यकता थी ? वे वृद्ध गुरुके चरणों में बैठकर उसे पूराकर सकते थे। अतः इससे यही निष्कर्ष निकालना पड़ता है कि जयधवलाके कार्यको अधूरा ही छोड़कर स्वामी वीरसेन दिवंगत हो गये थे।
धवलाकी समाप्ति श० सं० ७३८ में हुई थी और जयधवलाकी समाप्ति उससे २१ वर्ष पश्चात् । यदि स्वामी वीरसेनने धवलाको समाप्त करके ही जयधवलामें हाथ लगा दिया होगा तो उन्होने जयधवलाका स्वरचित भाग अधिकसे अधिक ७ वर्षके लगभग श० सं० ७४५ में बना पाया होगा। इसी समयके लगभग उनका अन्त होना चाहिये।
शक सं० ७०५ में समाप्त हुए हरिवंशपुराणके प्रारम्भमें स्वामी वीरसेन और उनके शिष्य जिनसेनको स्मरण किया गया है। स्वामी वीरसेनको कवि चक्रवर्ती लिखा है और उनके शिष्य जिनसेनके विषयमें लिखा है कि पावाभ्युदय नामक काव्यमें की गई पार्श्वनाथ भगवानके गुणोंकी स्तुति उनकी कीतिका संकीर्तन करती है। इसका मतलब यह हुआ कि शक सं० ७०५ से पहले स्वामी वीरसेनके शिष्य स्वामी जिनसेनने न केवल ग्रन्थरचना करना प्रारम्भ कर दिया था किन्तु उनकी कृतिका विद्वानोंमें समादर भी होने लगा था। किन्तु सम्भवतः उस अमोघवर्षका उल्लेख किया है और पाश्वर्वाभ्युदयका उल्लेख श० सं० ७०५ में समाप्त हुए हरिवंशपुराणके प्रारम्भमें पाया जाता है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि श० सं० ७०५ से पहले अमोघवर्षका राज्याभिषेक हो चुका था। किन्तु यह बात शिलालेखोंसे प्रमाणित नहीं होती। तथा हरिवंशपुराणके ही जिस श्लोकमें उसका रचनाकाल दिया है उसीमें उस समय दक्षिणमें कृष्णके पुत्र श्रीवल्लभका राज्य लिखा है। कोई इस श्रीवल्लभको गोविन्द द्वितीय कहते है और कोई गोविन्द तृतीय। गोविन्द द्वितीय अमोघवर्षके दादा थे और गोविन्द तृतीय पिता। इससे स्पष्ट है कि उस समय अमोघवर्ष राजा नहीं थे। तथा अमोघवर्षका राज्य शक सं०७९९ तक होनेके उल्लेख मिलते हैं। अतः शक सं०७०५ में तो उनका जन्म होने में भी सन्देह होता है। इन सब बातोंसे यही प्रतीत होता है कि पावर्वाभ्युदयकी रचना तो शक सं०७०५ से पहले ही हो गई थी किन्तु उसमे उक्त श्लोक बादमें अमोघवर्षके राज्यकालमे अपने शिष्यके प्रेमवश जोड़ा गया है।
(१) "जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः ।
वीरसेनगुरोः कीतिरकलावभासते ॥३९॥ यामिताभ्युदये पार्श्वजिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीतिः (ति) संकीर्तयत्यसौ ॥४०॥"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org