Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभृत उस माध्यमके, जिसके द्वारा अच्छे या बुरे कर्मोंका फल मिलता है, विविधरूप भारतीय । दर्शनोंमें देखे जाते है-प्रशस्तपादभाष्यकी व्योमवती टीका (पृ० ६३९) में पूर्वपक्षरूपसे एक मत यह उपलब्ध होता है कि धर्म या अदृष्ट अनाश्रित रहता है उसका कोई आधार नहीं है । न्यायमंजरी ( पृ० २७९ ) में इस मतको वृद्धमीमांसकोंका बताया है। उसमें लिखा है कि-यागादि क्रियाओंसे एक अपूर्व उत्पन्न होता है। यह स्वर्गरूप फल और यागके बीच माध्यमका काय करता है। पर, इस अपूर्वका आधार न तो यागकर्ता आत्मा ही होता है और न यागक्रिया ही, वह अनाश्रित रहता है।
शबरऋषि यागक्रियाको ही धर्म कहते हैं। इसमें ही एक ऐसी सूक्ष्मशक्ति रहती है जो परलोकमें स्वर्ग आदि प्राप्त कराती है।
मुक्तावली दिनकरी ( पृ० ५३५) में प्रभाकरोंका यह मत दिया गया है कि यागादि क्रियाएँ समूल नष्ट नहीं होती, वे सूक्ष्मरूपसे स्वर्गदेहके उत्पादक द्रव्योंमें यागसम्बन्धिद्रव्यारम्भकोंमें अथवा यागकत्तामें स्थित होकर फलको उत्पन्न करती हैं।
___ कुमारिलभट्ट धर्मको द्रव्य गुण और कर्मरूप मानते हैं, अर्थात् जिन द्रव्य गुण और कर्मसे वेदविहित याग किया जाता है वे धर्म हैं । उनने तन्त्रवार्तिक (२।१।२) में "आत्मैव चाश्रयस्तस्य क्रियाप्यत्रैव च स्थिता" लिखकर सूचित किया है कि यागादिक्रियाओंसे उत्पन्न होनेवाले अपूर्व का आश्रय आत्मा होता है। यागादिक्रियाओंसे जो अपूर्व उत्पन्न होता है वह स्वर्ग की अङ्करावस्था है और वही परिपाककालमें स्वर्गरूप हो जाती है।
व्यासका सिद्धान्त है कि यज्ञादिक्रियाओंसे यज्ञाधिष्ठातृ देवताको प्रीति उत्पन्न होती है और निषिद्ध कर्मोंसे अप्रीति । यही प्रीति और अप्रीति इष्ट और अनिष्ट फल देती है।
सांख्य कर्मको अन्तःकरणवृत्तिरूप मानते हैं। इनके मतसे शुक्ल कृष्ण कर्म प्रकृतिके विवर्त्त हैं। ऐसी प्रकृतिका संसर्ग पुरुषसे है अतः पुरुष उन कर्मोंके फलोंका भोक्ता होता है। तात्पर्य यह है कि जो अच्छा या बुरा कार्य किया जाता है उसका संस्कार प्रकृति पर पड़ता है और यह प्रकृतिगत संस्कार ही कर्मोंके फल देने में माध्यमका कार्य करता है ।
न्याय-वैशेषिक अदृष्टको आत्माका गुण मानते हैं। किसी भी अच्छे या बुरे कार्यका संस्कार आत्मा पर पड़ता है, या यों कहिए कि आत्मामें अदृष्ट नामका गुण उत्पन्न होता है। यह तब तक आत्मामें बना रहता है जब तक उस कर्मका फल न मिल जाय । इस तरह इनके मतमें अदृष्टगुण आत्मनिष्ठ है। यदि यह अदृष्ट वेदविहित क्रियाओंसे उत्पन्न होता है तब वह धर्म कहलाता है तथा जब निषिद्ध कर्मोंसे उत्पन्न होता है तब अधर्म कहलाता है।
बौद्धोंने इस जगतकी विचित्रताको कर्मजन्य माना है। यह कर्म चित्तगत वासनारूप है। अनेक शुभ अशुभ क्रियाकलापसे चित्तमें ही ऐसा संस्कार पड़ता है जो क्षणविपरिणत होता हुया भी कालान्तरमें होने वाले सुख दुःखका हेतु होता है।
इस तरह हम इस बातमें प्रायः अनेक दर्शनोंको एक मत पाते हैं कि अच्छे या बुरे कार्योंसे आत्मामें एक संस्कार उत्पन्न होता है। परन्तु जैन मतकी यह विशेषता है कि वह अच्छे या बुरे
(१) मी० श्लो० सू० १३१२२॥ श्लो० १९१ । (२) सांख्यका० २३ । सांख्यसू० ५।२५ । (३) न्यायसू. ४११०५२। प्रश० भा० पु० २७२॥ न्यायकुसुमाञ्जलि प्रथम स्तबक। (४) "कर्मजं लोकवैचित्र्यं चेतना मानसं च तत्"-अभिधर्मकोष ।
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