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प्रस्तावना
मंगलसे मंगलकर्ताको धर्मविशेषकी उत्पत्ति होती है, उससे अधर्मका नाश होकर निर्विघ्न कार्यपरिसमाप्ति हो जाती है।
. वेदान्तमें व्यवहारदृष्टिसे सभी मंगलोंके यथायोग्य करनेका विधान है। इस तरह वैदिक परम्परामें मंगल श्रुतिविहित कार्य है। वह विघ्नध्वंसके द्वारा फलकी प्राप्ति अवश्य कराता है।
और यतः वह श्रुतिविहित है अतः वह शिष्टजनोंको अवश्य कर्तव्य है। तथा शिष्य शिक्षाके लिए उसे यथासंभव ग्रन्थमें निबद्ध करनेका भी विधान है।
पातञ्जल महाभाष्य (१११११) में मंगलका प्रयोजन बताते हुए लिखा है कि शास्त्रके आदि में मंगल करनेसे पुरुष वीर तथा आयुष्मान होते हैं तथा अध्ययन करनेवालोंके प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं। दण्डी आदि कवियोंने महाकाव्यके अंगके रूपमें मंगलकी उपयोगिता मानी है।
बौद्धपरम्परामें अपने शास्ताका माहात्म्य ज्ञापन करना ही मंगलका मुख्य प्रयोजन है। यद्यपि शास्ताके गुणोंका कथन करनेसे उसके माहात्म्यका वर्णन हो जाता है फिर भी शास्ताको नमस्कार इसलिए किया जाता है जिससे नमस्कर्ताको पुण्यकी प्राप्ति हो। इस परम्परामें सदाचार परिपालनको भी मंगल करनेका प्रयोजन बताया गया है।
तत्वसंग्रह पंजिका (पृ० ७)में मंगलका प्रयोजन बताते हुए लिखा है कि भगवान्के गुणोंके वर्णन करनेसे भगवान् में भक्ति उत्पन्न होती है और उससे मनुष्य अन्तिम कल्याणकी ओर मुकता है । भगवान् के गुणोंको सुनकर श्रद्धानुसारी शिष्योंको तत्काल ही भगवान् में भक्ति उत्पन्न हो जाती है। प्रज्ञानुसारिशिष्य भी प्रज्ञादिगुणोंमें अभ्याससे प्रकर्ष देखकर वैसे अतिप्रकर्षगुणशाली व्यक्तिकी संभावना करके भगवान्में भक्ति और आदर करने लगते हैं। पीछे भगवानके द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोंके पठन पाठन और अनुष्ठानसे निर्वाणकी प्राप्ति कर लेते हैं। अतः निर्वाण प्राप्तिमें प्रधान कारण भगवद्भक्ति ही हुई। और इस भगवत्विषयक चित्तप्रसादको उत्पन्न करनेके लिए शास्त्रकारको भगवान्के वचनोंके आधारसे रचे जानेवाले शास्त्रके आदिमें मंगल करना चाहिए। क्योंकि परम्परासे भगवान भी शास्त्रकी उत्पत्तिमें निमित्त होते हैं। इस तरह इस परम्परामें मंगल करने के निम्नलिखित प्रयोजन फलित होते हैं-शास्ताका माहात्म्यज्ञापन, सदाचारपरिपालन, नमस्कर्ताको पुण्यप्राप्ति, देवता विषयक भक्ति उत्पन्न करके अन्ततः सर्वश्रेयःसंप्राप्ति और चूंकि शास्ताके वचनोंके आधारसे हो शास्त्र रचा जा रहा है अतः परम्परासे
न होनेवाले शास्ताका गुणस्मरण । यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि जो वैदिक परम्परामें श्रुतिविहित होनेसे मंगलकी अवश्यकर्त्तव्यता तथा मंगलका निर्विघ्न ग्रन्थसमाप्तिके प्रति कार्यकारणभाव देखा जाता है वह इस परम्परामें नहीं है। बौद्ध परम्परामें वेदप्रामाण्यका निरास करनेके कारण श्रुतिविहित होनेसे मंगलकी अवश्यकर्तव्यता तो बताई ही नहीं जा सकती थी पर उसका ग्रन्थपरिसमाप्तिके साथ कार्यकारणभाव भी नहीं जोड़ा गया है। फलतः इस परम्परामें अपने शास्ताके प्रति कृतज्ञता ज्ञापनार्थ अथवा लोककल्याणके लिए ही मंगल करना उचित बताया गया हैं।
जैन परम्परामें यतिवृषभाचार्यने त्रिलोकप्रज्ञप्तिमे मंगलका साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया है। उन्होंने उसका प्रयोजन बताते समय लिखा है कि शास्त्रके आदि मध्य और अन्तमें जिनेन्द्रदेव
(१) गौडपा० शा० भा० । (२) "शास्त्रं प्रणेतुकामः स्वस्य शास्तुर्माहात्म्यज्ञापनार्थ गणाख्यानपूर्वकं तस्मै नमस्कारमारभते ।"-अभि० स्वभा० पृ० २। (३) स्फुटार्थ अभि० व्या० पृ० २ । (४) त्रिलोकप्रज्ञप्ति गा०३३ ।
नि
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