Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभृत
hareपाहुडके चूर्णिसूत्र ( पृ० ३६५ ) में क्रोध मान माया और लोभ इन चार कषायोंका यदृष्टिसे राग और द्वेषमें विभाजन किया है। और इसी विभाजनकी प्रेरणा के फलस्वरूप कषायपाहुडका पेज्जदोसपाहुड भी पर्यायवाची नाम रखा गया है। चाहे कषायपाहुड कषायका कहिए या पेज्जदोसपाहुड दोनों एक ही बात हैं । क्योंकि कषाय या तो पेज्ज रूप रागद्वेषमें होगी या फिर दोषरूप । यह रागद्वेषमें विभाजन प्रायः चित्तको अच्छा लगने या विभाजन - बुरा लगने आदिके आधारसे किया गया है ।
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नैगम और संग्रह की दृष्टिसे क्रोध और मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं । व्यवहारनय मायाको भी द्वेष मानता है क्योंकि लोकमें मायाचारीकी निन्दा गर्दा आदि होनेसे इसकी दृष्टिमें यह द्वेषरूप है । ऋजुसूत्रनय क्रोधको द्वेषरूप तथा लोभको रारूप समझता है। मान और माया न तो रागरूप हैं और न द्वेषरूप ही; क्योंकि मान क्रोधोत्पत्तिके द्वारा द्वेषरूप है तथा माया लोभोत्पत्तिके द्वारा रागरूप है, स्वयं नहीं । अतः यह परम्परा व्यवहार ऋजुसूत्रनयकी विषयमर्यादा में नहीं आता ।
तीनों शब्दनय चारों कषायों को द्वेषरूप मानते हैं क्योंकि वे कर्मोंके आस्रवमें कारण होती हैं। क्रोध मान और मायाको ये पेज्जरूप नहीं मानते । लोभ यदि रत्नत्रयसाधक वस्तुओंका है तो वह इनकी दृष्टिमें पेज्ज है और यदि अन्य पापवर्धक पदार्थोंका है तो वह पेज्ज नहीं है । विशेषावश्यकभाष्य ( गा० ३५३६-३५४४) में ऋजुसूत्रनय तथा शब्दनयोंकी दृष्टिमें यह विशेषता बताई है कि- चूंकि ऋजुसूत्रनय वर्तमानमात्रग्राही है अतः वह क्रोधको सर्वथा द्वेष रूप मानता है तथा मान माया और लोभको जब ये अपनेमें सन्तोष उत्पन्न करें तब रागरूप तथा जब परोपघातमें प्रवृत्ति करावें तब द्वेषरूप समझता है । इसतरह इन नयोंकी दृष्टिमें मान, माया और लोभ विवक्षाभेदसे रागरूप भी हैं और द्वेषरूप भी ।
चूणिसूत्र ० यतिवृषभने कषायों के ये आठ भेद गिनाए हैं - नामकषाय, स्थापनाकषाय, द्रव्यकषाय, भावकषाय, प्रत्ययकषाय, समुत्पत्तिककषाय, आदेशकषाय और रसकषाय । ये भेद आचारांग क्ति ( गा० १९० ) तथा विशेषावश्यकभाष्य में भी पाए जाते हैं । इन आठ भेदों में ऐसे सभी पदार्थोंका संग्रह हो जाता है जिनमें किसी भी दृष्टिसे कषाय व्यवहार किया जा सकता है। इनमें भावकषाय ही मुख्य कषाय है । इस कसायपाहुड ग्रन्थ में इस भावकषायका तथा इसको उत्पन्न करनेमें प्रबल कारण कषायद्रव्यकर्म अर्थात् प्रत्ययकषायका सविस्तर वर्णन है । मुख्यतः इस कसायपाहुडमें चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीय कर्मका विविध अनुयोग द्वारों में प्ररूपण है । उसका अधिकारोंके अनुसार संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है ।
२. कसाय पाहुडका संक्षिप्त परिचय
प्रकृत कषायप्राभृत पन्द्रह अधिकारोंमें बटा हुआ है। उनमेंसे पहला अधिकार पेज्जदोषविभक्ति है। मालूम होता है यह अधिकार कषायप्राभृतके पेज्जदोषप्राभृत दूसरे नामकी मुख्यतासे रखा गया है । अगले चौदह अधिकारों में जिस प्रकार कषायकी बन्ध, उदय, सस्व आदि विविध दशाओंके द्वारा कषायोंका विस्तृत व्याख्यान किया है उसप्रकार पेज्जदोषका विविध दशाओं के द्वारा व्याख्यान न करके केवल उदयकी प्रधानतासे व्याख्यान किया गया है । तथा अगले चौदह अधिकारोंमें कषायका व्याख्यान करते हुए यथासंभव तीन दर्शनमोहनीयको गर्भित करके और कहीं पृथक रूपसे उनकी विविध दशाओं का भी जिसप्रकार व्याख्यान किया है उस प्रकार पेज्जदोषविभक्ति अधिकार में नहीं किया गया है किन्तु वहाँ उसके व्याख्यानको सर्वथा छोड़ दिया गया है ।
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