Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभृत समय तक उनके गुरुने सिद्धान्तग्रन्थोंकी टीका करने में हाथ नहीं लगाया था। हमारा अनुमान है कि पाश्र्वाभ्युदय हरिवंशपुराणसे कुछ वर्ष पहले तो अवश्य ही समाप्त हो चुका होगा। अधिक नहीं तो हरिवंशकी समाप्तिसे ५ वर्ष पहले उसकी रचना अवश्य हो चुकी होगी। यदि हमारा अनुमान ठीक है तो शक सं० ७०० के आस पास उसकी रचना होनी चाहिये। उस समय जिनसेनाचार्यकी अवस्था कमसे कम बीस वर्षकी तो अवश्य रही होगी। जिनसेनाचायने अपनेको अविद्धकर्ण कहा है। इसका मतलब यह होता है कि कर्णवेध संस्कार होनेसे पूर्व ही वे गुरुचरणों में चले आये थे। तथा उन्होंने वीरसेनके सिवा किसी दूसरेको अपना गुरु नहीं बतलाया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके विद्यागुरु और दीक्षागुरु वीरसेन ही थे। संभवतः होनहार समझकर गुरु वीरसेनने उन्हें बचपनसे ही अपने संघमें लेलिया था। यदि बालक जिनसेन ६ वर्पकी अवस्थामें गुरु चरणों में आया हो तो उस समय गुरु वीरसेनकी अवस्था कमसे कम २१ वर्षकी तो अवश्य रही होगी । अर्थात् गुरु और शिष्यकी अवस्थामें १५ वर्षका अन्तर था ऐसा हमारा अनुमान है। इसका मतलब यह हुआ कि श० सं० ७०० में यदि जिनसेन २० वर्षके थे तो उनके गुरु वीरसेन ३५ वर्षके रहे होंगे। यद्यपि गुरु
और शिष्यकी अवस्थामें इतना अन्तर होना आवश्यक नहीं है, उससे बहुत कम अन्तर रहते हुए भी गुरु-शिष्य भाव आजकल भी देखा जाता है। किन्तु एक तो दोनोंके अन्तिमकालको दृष्टिमें रखते हुए दोनों की अवस्थामें इतना अन्तर होना उचित प्रतीत होता है । दूसरे, दोनों में जिस प्रकारका गुरुशिष्य भाव था-अर्थात् यदि बचपनसे ही जिनसेन अपने गुरुके पादमूलमें
आगये थे और उन्हींके द्वारा उनकी शिक्षा और दीक्षा हुई थी तो इतना अन्तर तो अवश्य होना ही चाहिये क्योंकि उसके विना बालक जिनसेनके शिक्षण और पालनके लिये जिस पितृभावकी आवश्यकता हो सकती है एक दम नव-उम्र वीरसेनमें वह भाव नहीं हो सकता। अतः श० सं० ७०० में वीरसेनकी अवस्था ३५ की और जिनसेनकी अवस्था २० की होनी चाहिये । धवला और जयधवलाके रचना कालके आधारपर यह हम ऊपर लिख ही चुके हैं कि वीरसेन स्वामीकी मृत्यु श० सं० ७४५ के लगभग होनी चाहिये। अतः कहना होगा कि स्वामी वीरसेनकी अवस्था ८० वर्षके लगभग थी। शक सं० ६६५ के लगभग उनका जन्म हुआ था और श० सं० ७४५ के लगभग अन्त । धवलाकी समाप्ति श० सं० ७३८ में हुई थी और जयधवलाकी समाप्ति उससे २१ वर्ष वाद श० सं० ७५६ में। यदि धवलाकी रचनामें भी इतना ही समय लगा हो तो कहना होगा कि श० सं० ७१७ से ७४५ तक स्वामी वीरसेनका रचनाकाल रहा है।
स्वामी जिनसेनके पार्श्वभ्युदयका ऊपर उल्लेख कर आये हैं और यह भी बतला आये हैं कि वह श०सं० ७०० के लगभगकी रचना होना चाहिये और उस समय जिनसेन स्वामीकी अवस्था कमसे कम २० वर्षकी अवश्य होनी चाहिए । इनकी दूसरी प्रसिद्ध कृति महापुराण है जिसके पूर्व भाग आदि पुराणके ४२ सर्ग ही उन्होंने बना पाये थे। शेषकी पूर्ति उनके शिष्य गुणभद्राचायने की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि आदि पुराणकी रचना धवलाकी रचनाके बाद प्रारम्भकी गई थी, क्योंकि उसके प्रारम्भमें स्वामी वीरसेनका स्मरण करते हुए उनकी धवला भारतीको नमस्कार किया है। अतः शक सं० ७३८ के पश्चात् उन्होंने आदि
(१) "सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् ।
मन्मनःसरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥५७॥ धवलां भारती तस्य कीर्ति च शुचिनिर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेषभुवनं तं नमाम्यहम् ॥५॥"
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