Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
उल्लेख श्वेताम्बर पट्टावलियों में हैं तो वे कमसे कम वर्तमान स्वरूपमें उपलब्ध त्रिलोकप्रज्ञप्तिके रचयिता तो हरगिज़ नहीं हो सकते । किन्तु यदि दिगम्बर परम्पराके आर्यमंच और नागहस्ती श्वेताम्बर परम्परासे भिन्न ही व्यक्ति हो तो उनका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीका अन्त
और छठीका आदि होना चाहिये और गुणधरको विक्रमकी तीसरी शताब्दीका विद्वान होना चाहिये । ऐसी अवस्थामें गुणधरद्वारा रचित कषायप्राभृतकी प्राप्ति पार्यमंच और नागहस्तीको आचार्य परम्परासे ही प्राप्त होनेका जो उल्लेख जयधवलाकारने किया है वह भी ठीक बैठ जाता है, और यतिवृषभ और आर्यमंक्षु तथा नागहस्तिका गुरुशिष्यभाव भी बन जाता है।
(१) वर्तमानमें त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ जिस रूपमें पाया जाता है उसी रूपमें आचार्य यतिवृषभने उसकी रचना की थी, इस बातमें हमे सन्देह है। हमें लगता है कि प्राचार्य यतिवृषभकृत त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें कुछ अंश ऐसा भी है जो बादमें सम्मिलित किया गया है और कुछ अंश ऐसा भी है जो किसी कारणसे उपलब्ध प्रतियोंमें लिखनेसे छूट भी गया है। हमारे उक्त सन्देहके कारण निम्न हैं
१ त्रिलोकप्रज्ञप्तिके अन्तकी एक गाथामें उसका परिमाण आठ हजार बतलाया गया है, किन्तु हमारे सामने जो प्रति है उसकी श्लोक संख्याका प्रमाण ९३४० होता है। इतने पर भी उसमें देवलोक प्रज्ञप्ति और सिद्धलोकप्रज्ञप्तिका कुछ भाग छूटा हुआ है।
२ ज्योतिर्लोकप्रज्ञप्तिके अन्तमें मनुष्यलोकके बाहरके ज्योतिबिम्बोंका परिमाण निकालनेका वर्णन गद्यमे किया गया है । यद्यपि इस प्रकारका गद्य भाग इस ग्रन्थमें यत्र तत्र पाया जाता है। किन्तु प्रकृत गद्यभाग धवलाके चतुर्थखण्डमे अक्षरशः पाया जाता है और उसमें कुछ इस प्रकारकी चर्चा है जो त्रिलोकप्रज्ञप्तिकारकी अपेक्षा धवलाकारकी दृष्टिसे अधिक संगत प्रतीत होती है। उक्त गद्यका वह भाग इस प्रकार है
"स्वयंभूरमणसमुदस्स परदो रज्जुछेदणया अस्थिति कुदो णव्वदे ? वेछप्पण्णंगुलसदवग्गसुत्तादो। 'जत्तियाणि दीवसायररूवाणि जंबूदीवछेदणाणि च (छ) रूवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुछेदणाणि'ति परियम्मेण एदं वक्खाणं किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदि किन्तु सुत्तेण सह ग विरुज्झदि । तेण एवस्स वक्खाणस्स गहणं कायन्वं ण परियम्मस्स, तस्स सुत्तविरुद्धत्तादो। 'ण सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होदि, अइप्पसंगावो ।
जोइसिया णस्थि त्ति कुदो णव्वदे? एदम्हावो चेव सुत्तादो । एसा तप्पाप्रोग्गसंखेज्जरूवाहियजंबवीवछेदणयसहिददीवसायररूवमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरियोवएसपरंपराणसारिणी, केवलं त तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुसारी जोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइयसुत्तावलंबित्तिवलेण पयदगच्छसाहणट्ठमम्हेहि परूविदा प्रतिनियतसूत्रावष्टम्भवलविजंभितगुणप्रतिपन्न प्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोपदेशवत् प्रायतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा । तदो ण एत्थ इवमित्थमेवेति एयंतपरिग्गहेण असग्गहो कायव्यो ..........." ध०, खं० ४, पृ० १५५।
उक्त गद्यका भावार्थ शंका-समाधानके रूपमें निम्नप्रकार हैशंका-स्वयंभुरमण समुद्रके परे राजुके अर्धच्छेद होते हैं, यह कैसे जाना ?
समाधान-ज्योतिष्कदेवोंका प्रमाण निकालनेके लिये 'वेछप्पणंगुलसदवग्ग' आदि जो सूत्र कहा है उससे जाना।
शंका-'द्वीप और सागरोंकी जितनी संख्या है तथा जम्बूद्वीपके जितने अर्धच्छेद प्रतीत होते है छ अधिक उतने ही राजुके अधंछेद होते है ।' इस परिकर्मसूत्रके साथ यह व्याख्यान विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-उक्त व्याख्यान परिकर्मसूत्रके साथ भले ही विरोधको प्राप्त हो किन्तु उक्त सूत्रके साथ
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