Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
६९
तो नहीं कहा जा सकता। इसके सम्बन्धमें हमारा मन्तव्य है कि प्रथम तो संक्रम अनुयोग द्वारसम्बन्धी गाथाओंके गुणधर रचित होनेमें पूर्वाचार्यों में मतभेद था। कुछ आचार्योंका मत था कि उनके रचयिता आचार्य नागहस्ति थे। यद्यपि जयधवलाकार इस मतसे सहमत नहीं हैं, फिर भी मात्र उतनी गाथाओंके कर्मप्रकृतिमें पाये जानेसे यह नहीं कहा जा सकता कि आचार्य गुणधरका वारसा दिगम्बर परम्पराकी तरह श्वेताम्बर परम्पराको भी प्राप्त था। दूसरे, यह हम पहले बतला आये हैं कि कषायप्राभृतकी संक्रमवृत्ति सम्बन्धी जो गाथाएं कर्मप्रकृतिमें पाई जाती हैं, उनमें कषायप्राभृतकी गाथाओंसे कुछ भेद भी है और वह भेद सैद्धान्तिक मतभेदको लिये हुए है। यदि कषायप्राभृतमें उपलब्ध पाठ श्वेताम्बरपरम्पराको मान्य होता तो कर्मप्रकृतिमें उसे हम ज्योंका त्यों पाते, कमसे कम उसमें सैद्धान्तिक मतभेद तो न होता। अतः वाचक पदालङ्कृत होनेसे या आर्यमंगु और नागहस्ती नाम श्वेताम्बर परम्परामें पाया जानेसे कषायप्राभृतके रचयिता आचार्य गुणधरको श्वेताम्बर परम्पराका विद्वान नहीं माना जा सकता है।
अब रह जाती है शेष तीसरी बात । किन्तु उससे भी यह नहीं कहा जा सकता कि षटखण्डागमसे कषायप्राभृतकी आनाय ही भिन्न थी। एक ही आम्नायमें होने वाले आचार्यों में बहुधा मतभेद पाया जाता है और इस मतभेदपरसे मात्र इतना ही निष्कर्ष निकाला जाता है कि उन आचार्योंकी गुरुपरम्पराएं भिन्न थीं। जिसको गुरुपरम्परासे जो उपदेश प्राप्त हुआ उसने उसीको अपनाया । कर्मशास्त्रविषयक इन मतभेदोंकी चर्चा दोनों ही सम्प्रदायोंमें बहुतायतसे पाई जाती है। अतः भिन्न उपदेश कहे जानेसे भी यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि षटखण्डागमसे कषायप्राभृत भिन्न सम्प्रदायका ग्रन्थ है। अतः कषायप्राभृतके रचयिता दिगम्बर सम्प्रदायके ही आचार्य थे।
३ जयधवलाके रचयिता जयधवलाके अन्तमें एक लम्बी प्रशस्ति है, जिसमें उसके रचयिता, रचनाकाल तथा रचनादेशके सम्बन्धमें प्रकाश डाला गया है। रचयिता के सम्बन्धमें प्रशस्तिमें लिखा है
"प्रासीदासीददासन्नभव्यसत्त्वकुमुद्वतीम् । मुद्वतीं कर्तुमीशो यः शशाङ्क इव पुष्कलः ॥१८॥ श्री वीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । पारदृश्वाधिविद्यानां साक्षादिव स केवली ॥१९॥ प्रीणितप्राणिसंपत्तिराक्रान्ताशेषगोचरा । भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्डे यस्य नास्खलत् ॥२०॥ यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्ट्वा सार्थगामिनीम् । जाताः सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः ॥२१॥ यं प्राह: प्रस्फुरद्वोधदीधितिप्रसरोदयम। श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥२२॥ प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तवाधिवातशुद्धधीः । सार्थ प्रत्येकबुद्धयः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः ॥२३॥ पुस्तकानां चिरन्तानां गुरुत्वमिह कुर्वता। येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः ॥२४॥ यस्तपोदीप्तकिरणैर्भव्याम्भोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनीनेनः पञ्चस्तूपान्वयाम्वरे ।२५।।
स
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