Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
भी इतने प्रेमी थे कि वे अपनेसे पूर्वके सब पुस्तक पाठकोंसे बढ़ गये थे। उनकी टीकाओं में जिन विविधप्रन्थोंसे उद्धरण लिये गये हैं और उनसे सिद्धान्त ग्रन्थोकी जिन अनेक टीकाओंके संलोडनका परिचय मिलता है उससे भी उनके इस पुस्तकप्रेमका समर्थन होता है।
इन साक्षात् सर्वज्ञसम, प्रज्ञाश्रमणे में श्रेष्ठ श्री वीरसेनस्वामीके शिष्य श्री जिनसेन भी आपने गुरुके अनुरूप ही विद्वान थे। मालूम होता है वे बाल्यकालसे ही गुरुकुल में वास करने लगे थे इसीलिये उनका कनछेदन भी न हो सका था। वे शरीरसे कृश थे, अति सुन्दर भी नहीं थे, फिर भी उनके गुणांपर मोक्षलक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही मुग्ध थीं। एक ओर वे अखण्ड ब्रह्मचारी और परिपूर्णसंयमी थे तो दूसरी ओर अनुपम विद्वान थे। इन दोनों गुरुशिष्योंने ही इस जयधवला टीकाका निर्माण किया है। प्रशस्तिके ३५ वें श्लोक से यह स्पष्ट है कि यह प्रशस्ति स्वयं श्री जिनसेनकी बनाई हुई है क्योंकि उसमें वे लिखते हैं कि उस अनतिप्रौढमति जिनसेनने गुरुकी आज्ञासे यह पुण्य शासन-पवित्र प्रशस्ति लिखी।
प्रशस्तिके ३६ वें श्लोक में लिखा है कि ग्रन्थका पूर्वार्ध गुरु वीरसेनने रचा था और उत्तराध शिष्य जिनसेनने । किन्तु वह पूर्वार्ध कहां तक समझा जाय इसका कोई स्पष्ट निर्देश नहीं
है, न कहीं बीचमें ही कोई इस प्रकारका उल्लेख वगैरह मिल सका है जिससे यह किसने कितना निर्णय किया जा सके कि यहां तक श्रीवीरसेन स्वामीकी रचना है। यद्यपि श्री
ग्रन्थ जिनसेन स्वामीने जयधवलाके स्वरचित भागको पद्धति कहा है और श्रीवीरसेनबनाया स्वामी रचित भागको टीका कहा है, फिर भी ग्रन्थके वर्णनक्रममें भी कोई ऐसी स्पष्ट
भेदक शैली नहीं मिलती जिससे यह निर्णय किया जा सके कि किसने कितना भाग रचा था। हां, श्रुतावतारमें आचार्य इन्द्रनन्दिने यह अवश्य निर्देश किया है कि कषायप्राभृतकी चार विभक्तियोंपर बीस हजार प्रमाण रचना करके श्रीवीरसेन स्वामी स्वर्गको सिधार गये । उसके पश्चात् उनके शिष्य जयसेन गुरुने ४० हजार श्लोकप्रमाणमें उस टीकाको समाप्त किया और इस प्रकार वह टीका ६० हजार प्रमाण हुई। प्रशस्तिमें एक श्लोक निम्न प्रकार है:
"विभक्तिः प्रथमस्कन्धो द्वितीयः संक्रमोदयः ।
उपयोगश्च शेषस्तु तृतीयः स्कन्ध इष्यते ॥१०॥" अर्थात-इस ग्रन्थमें तीन स्कन्ध है। उनमेंसे विभक्ति तक पहला स्कन्ध है। संक्रम उदय और उपयोगाधिकार तक दूसरा स्कन्ध है और शेष भाग तीसरा स्कन्ध माना जाता है।
इसके अनुसार पेज्जदोषविभक्ति, प्रकृतिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, और प्रदेश विभक्ति तक पहला स्कन्ध होता है। और चूकि झीणाझीण और स्थित्यन्तिक अधिकार प्रदेशविभक्ति अधिकारके ही चूलिका रूपसे कहे गये हैं तथा दूसरा स्कन्ध संक्रम अधिकारसे गिना है इस लिये इन्हें भी विभक्तिस्कन्धमें ही सम्मिलित समझना चाहिये।
इन्द्रनन्दिके कथनानुसार पहले स्कन्धकी टीका श्री वीरसेन स्वामीने रची थी। यद्यपि वे चार विभक्तियोंपर टीका लिखनेका उल्लेख करते हैं किन्तु पेज्जदोषविभक्ति, स्थिति विभक्ति,
(२) "प्राकृतसंस्कृतभाषामिश्रा टीका विलिख्य धवलाख्याम् ।
जयधवलां च कषायप्राभूतके चतसृणां विभक्तीनाम् ॥१८२॥ विंशतिसहनसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिष्यो जयसेनगुरुनामा ॥१८३॥ तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्रः समापितवान् । जयपवलेवं षष्ठिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका ॥१८४॥"
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