Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभृत
श्वेताम्बरोंके तीर्थोद्धार प्रकरणमें वीरनिर्वाणसे विक्रमादित्यके राज्यारम्भ तक ४७० वर्ष में होनेवाले राजवंशोंकी कालगणना भी प्रायः इसी प्रकार दी है। यथा
"जं रणि कालगनो अरिहा तित्थंकरो महावीरो। तं रयणिमवंतिवई अभिसित्तो पालओ राया। सट्ठी पालगरण्णो पणपण्णसयं तु होई गंदाणं । अट्ठसयं मुरियाणं तीसं पुण पुस्समित्तस्स ।। बलमित्त भाणुमिता सठि वरसाणि चत्त नरवहणो ।
तह गद्दभिल्लरज्जो तेरस वरिसा सगस्स चउ॥" अर्थात्-"पालकके ६०, नन्दोंके १५५, मौर्योंके १०८, पुष्यमित्रके ३०, बलमित्र-भानुमित्रके ६०, नरवाहनके ४०, गर्दभिल्लके १३ और शकके ४ वर्ष वीतनेपर वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमादित्य राजा हुआ।"
त्रिलोकप्रज्ञप्तिके कर्ताने वीर निर्वाणसे कल्किके समय तक १००० वर्षमें होने वाले राजवंशोंकी गणना की है और श्वेताम्बराचार्योंने वीरनिर्वाणसे शकसंवत् तथा विक्रम संवतके प्रारम्भ तक क्रमशः ६०५ और ४७० वर्ष में होने वाले राजवंशोंकी कालगणना की है। दोनोंने वीरनिर्वाणके दिन उज्जैनीमें पालक राजाका अभिषेक तथा उसका राज्यकाल ६० वर्ष माना है। उसके बाद त्रिलोकप्रज्ञप्तिके कर्ता विजयवंशका उल्लेख करते है जब कि श्वेताम्बराचार्योने नन्दवंशको अपनी गणनाका आधार बनाया है। किन्तु दोनों वंशोंका काल समान है। अतः कालगणनामें कोई अन्तर नहीं पड़ता । तित्थोगाली पइन्नयमे . नन्दोंके १५० बर्ष लिखे हैं। शेष ५ वर्षकी कमी पुष्यमित्रके ३५ वर्ष लिखकर पूरी कर दी गई है।
त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें मौर्यवंशका राज्यकाल केवल ४० वर्ष लिखा है जब कि तित्थोगालीपइन्नयमें १६० तथा तीर्थोद्धारप्रकरणमे १०८ वर्ष लिखा है। भारतीय इतिहासके क्रमका विचार करते हुए १६० वर्षका उल्लेख ही ठीक जंचता है। प्राधुनिक इतिहासलेखक भी मौर्यवंशका राज्यकाल ३२५ ई० पू० से १८०ई०पू० तक के लगभग ही मानते हैं। तीर्थोद्धारके कर्ताने १६०-१०८ शेष ५२ वर्षकी कमीको गर्दभिल्लोंके १५२ वर्ष मानकर पूर्ण कर दिया है, किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी गणनामें १२० वर्षकी कमी रह गई है।
जनहितैषी भा० १३ अंक १२ में प्रकाशित 'गुप्तराजाओंका काल मिहिरकुल और कल्कि' शीर्षक प्रो० पाठकके लेखसे भी उक्त कमी प्रकट होती है। पाठक महोदयने मंदसौरके शिलालेख तथा हरिवंशपुराणकी काल गणनाके आधारपर गुप्त साम्राज्यके नाशक मिहिरकुलको कल्कि सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। आपने लिखा है-'कुमारगुप्त राजा विक्रम सं० ४९३, गुप्त सं० ११७ और शकाब्द ३५८ में राज्य करता था ।' अतः ४९३ में से ११७ वर्ष कम करनेपर वि० सं० ३७६ में गुप्त राज्य या गुप्तसंवत्का प्रारम्भ होना सिद्ध होता है। अर्थात् डाक्टर फ्लीटके मतानुसार वि० तथा गुप्त सं० में अन्तर आता है। अब यदि वि० सं० से ४७० वर्ष ५ मास या ४७१ वर्ष पूर्व वीर निर्वाण माना जाय जैसे कि वर्तमानमें प्रचलित है, तो वीर निर्वाणसे ४७१ + ३७६ % ८४७ वर्ष बाद गुप्तराज्य प्रारम्भ होना चाहिये । किन्तु त्रिलोक प्रज्ञप्तिके पालक राजासे गुप्त राज्यके प्रारम्भ तकके गणना अंकोंके जोड़नेसे ६०+१५५+ ४०+ ३०+६०+१००+ ४० + २४२७२७ वर्ष ही होते हैं । अतः ८४७-७२७ = १२० वर्ष की कमी स्पष्ट हो जाती है। इस कमी का कारण क्या है ?
त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें शकराजाके बारेमें कई मतोंका उल्लेख किया है । जिनमेसे एक मत यह भी है कि वीर निर्वाणके ४६१ वर्ष बाद शक राजा हुआ। मालूम होता है ग्रन्थकारको यही मत अभीष्ठ था। उन्होंने ६०५-४६१ = १४४ वर्ष कम करनेके लिये १२० वर्ष तो मौर्यकालमें कम किये, शेष २४ वर्ष
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