Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहित कषायप्राभृत __ अर्थ-नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस ये पांच प्राचार्य वीर भगवानके तीर्थमें ग्यारह अंगके धारी हुए। इनके समयका एकत्र परिमाण २२० वर्ष होता है। इनके बाद भरतक्षेत्रमें ग्यारह अंगोंका धारक कोई नहीं हुआ ।। ७८-७६ ॥
"पढमो सुभद्दणामो जसभद्दो तह य होदि जसबाहु । तुरिमो य लोयणामो एदे आयारअंगधरा ॥८॥ सेसेक्करसंगाणि (गाणं) चोद्दसपुवाणमेक्कदेसधरा। एक्कसयं अट्ठारसवासजुदं ताण परिमाणं ॥१॥ तेसु अदीदेसु तदा आचारधरा ण होंति भरहम्मि ।
गोदममुणिपहुवीणं वासाणं छस्सदाणि तेसीदी ॥८२॥" अर्थ-सुभद्र, यशोभद्र, यशाबाहु और लोह ये चार आचार्य आचाराङ्गके धारी हुए। ये सभी आचार्य शेष ग्यारह अंग और चौदह पूर्वके एक देशके ज्ञाता थे। इनके समयका परिमाण ११८ वर्ष होता है। इनके बाद भरतक्षेत्रमें आचाराङ्गके धारी नहीं हुए । गौतमगणधरसे लेकर इन सभी आचार्यों का काल ६८३ वर्ष हुआ ॥८०-८२॥
इस प्रकार त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें भगवान महावीरके बादकी जो प्राचार्यपरम्परा तथा कालगणना दी है उसका क्रम इस प्रकार होता है
६२ वर्षमें ३ केवलज्ञानी १०० वर्ष ५ श्रुतकेवली १८३ वर्षमें ११ ग्यारह अंग और दस पूर्वके धारी २२० वर्षमें ५ ग्यारह अंगके धारी ११८ वर्षमें ४ आचारांगके धारी
६८३ वर्ष
(२) माननीय प्रेमीजीने 'लोक विभाग और तिलोयपण्णत्ति' नामक अपने लेखमें (जैनसा० इ०) इस अंशका अर्थ इस प्रकार किया है-'शेष कुछ आचार्य ग्यारह अंग चौदह पूर्वके एक अंशके ज्ञाता थें । ये सब ११८ वर्षमे हुए ।' माननीय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने भी ऐसा ही अर्थ किया है । वे लिखते हैं-'त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इतना विशेष जरूर है कि आचारांगधारियोंकी ११८ वर्षकी संख्यामें अंग और पूर्वोके एक देशधारियोंका भी समय शामिल किया है।' (समन्तभद्र० पृ० १६१) । इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके ८४ वें श्लोकको या ब्रह्म हेमचन्द्रके श्रुतस्कन्धको दुष्टिमें रखकर उक्त अर्थ किया गया जान पड़ता है। क्योंकि उनमें लोहार्यके पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, और अहंदत्त नामके चार प्राचार्योको अंगों और पूर्वोके एकदेशका धारी बतलाया है। किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्तिके उक्त अंशका ऐसा अभिप्राय नहीं है। उसमें आचाराङ्गके धारक सुभद्र आदि चार आचार्योंको ही शेष ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वोके एक देशका धारी बतलाया है। 'सेस' पद 'एक्कारसंगाणं" के साथ समस्त है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अमुक अमुक अंगों और पूर्वोके पूर्णज्ञाता आचार्योंके अवसानके बाद उन उन अंगों और पूर्वोका एकदम लोप नहीं हो गया, किन्तु उनके एकदेशका ज्ञान अन्त तक बराबर चला आया, जैसा कि धवला (वेदना खण्ड ) तथा जयधवला (पृ० ८५ ) में दिये गये श्रुतावतारसे स्पष्ट है। यदि ऐसा न होता तो पूर्वोके एकदेशका ज्ञान धरसेन और गुणधर आचार्यो तक न आता और न षट्खण्डागम और कषायप्राभूतकी रचना होती, क्योंकि दूसरे अग्रायणीय पूर्वसे षट्खण्डागमका उद्गम हुआ है और पांचवे ज्ञानप्रवाद पूर्वसे कषायप्राभतका उद्गम हुआ है।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org