Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहित कषायप्राभृत
नागहस्ति तथा यतिवृषभका गुरुशिष्यभाव तो छोड़ना ही पड़ता है । यह भी ध्यान में रखनेकी है कि स्वयं यतिवृषभ इस तरहका कोई उल्लेख नहीं करते हैं । उन्होंने अपने गुरुका या कषायपाहुडसूत्र की प्राप्ति होने का कहीं कोई उल्लेख नही किया । अपने चूर्णिसूत्र में वे पवाइज्जमा और अपवाइजमारण उपदेशांका निर्देश अवश्य करते हैं किन्तु किसका उपदेश पवाइज्जमाण है और किसका उपदेश अपवाइजमाण है इसकी कोई चर्चा नहीं करते। यह चरचा करते हैं जयधवलाकार श्री वीरसेन स्वामी, जिन्हें इस विषय में अवश्य ही अपने पूर्वके अन्य टीकाकारोंका उपदेश प्राप्त था । ऐसी अवस्था में एकदम यह भी कह देना शक्य नही है कि आर्यमंछु नागहस्ति और वृषभ गुरुशिष्यभावकी कल्पना भ्रान्त है। तब क्या दिगम्बर परम्परामें इन नामोंके
पृथक ही आचार्य हुए हैं जेा महावाचक और क्षमाश्रमण जैसी उपाधियों से विभूषित थे ? किन्तु इसका भी कहीं अन्यत्रसे समर्थन नहीं होता है ।
हमने ऊपर जो यतिवृषभका समय बतलाया है वह त्रिलोकप्रज्ञप्ति और चूर्णिसूत्रों के रचयिता यतिवृषभको एक मानकर उनकी त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारपर लिखा है । यदि यह कल्पना की जाये कि चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभ कोई दूसरे व्यक्ति थे जो नागहस्तिके समकालीन थे तो जयधवलाकार के उल्लेखकी संगति ठीक बैठ जाती है किन्तु इस नामके दो आचार्यों के होने का भी अभी तक कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हो सका है। दूसरे त्रिलेाकप्रज्ञप्ति के अन्तकी एक गाथा में चूर्णिसूत्र और गुणधरका उल्लेख पाया जाता है । अतः दोनोंके कर्ता दो यतिवृषभ नहीं सकते । गुणधर, आर्यमंतु और नागहस्ति तथा यतिवृषभके पौर्वापर्यकी इस चर्चाको बीच में ही छोड़ कर हम आगे यतिवृषभ के समयका विचार करेंगे ।
आचार्य यतिवृषभ अपने समय के एक बहुत ही समर्थ विद्वान थे । उनके चूर्णिसूत्र और त्रिलोकप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ ही उनकी विद्वत्ताकी साक्षी के लिये पर्याप्त हैं । जयधवलाकारने जयआचार्य धवला में जगह जगह जो उनके मन्तव्यों की चर्चा की है, और चर्चा करते हुए उनके मतिवृषभका वचन से यतिवृषभ के प्रति जो आदर और श्रद्धा टपकती है उन सबसे भी इस बातका समय समर्थन होता है । उदाहरण के लिये यहाँ एक दो प्रसंग उद्धृत किये जाते हैं ।
जयधवलाकारको यह शैली है कि वे अपने प्रत्येक कथनको साक्षी में प्रमाण दिये विना आगे नहीं बढ़ते । एक जगह कुछ चर्चा कर चुकने पर शङ्काकार उनसे प्रश्न करता है कि आपने यह कैसे जाना ? तो उसका उत्तर देते हैं कि यतिवृषभ आचार्य के मुखकमल से निकले हुए इसी चूर्णिसूत्र से जाना । इस पर शङ्काकार पुनः प्रश्न करता है कि चूर्णिसूत्र मिध्या क्यों नहीं हो सकता? तो उसका उत्तर देते हैं कि राग द्वेष और मोहका अभाव होनेसे यतिवृषभके वचन प्रमाण हैं, वे असत्य नहीं हो सकते' । कितना सीधा सादा और भावपूर्ण समाधान है।
इसी प्रकार एक दूसरे प्रश्नका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है- विपुलाचलके शिखर पर स्थित महावीररूपी दिवाकरसे निकलकर गौतम, लोहार्य, जम्बुस्वामी आदि आचार्य परम्परासे श्राकर, गुणधराचार्यको प्राप्त होकर गाथा रूपसे परिणत हो पुनः आर्यमंतु- नागहस्तिके द्वारा यतिवृषभ के मुख से चूर्णिसूत्ररूपसे परिणत हुई दिव्यध्वनिरूपी किरणों से हमने ऐसा जाना है ।
(१) “कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव जइवसहाइरियमुहकमलविणिग्गय चुण्णिसुत्तादो । चुण्णिसुत्तमण्णहा किण्ण होदि ? ण, रायदोसमोहाभावेण पमाणत्तमुवगयजइवसहवयणस्स असच्चत्तविरोहादो ।" प्रे० पृ० १८५९ । (२) " एदम्हादो विउलगिरिमत्ययत्थवड्ढमाण दिवाय रादो विणिग्गमिय गोदमलोहज्जजम्बुसामियादिप्राइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखुणाग हत्थींहितो जइवसहमुहणमिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिव्वज्भुणिकिरणादो णव्वदे ।" प्रे० पृ० १३७८ ।
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