Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
वाचक शब्द वाचनासे बना है। और ग्रन्थ, उसके अर्थ अथवा दोनोंका देना वाचना कहलाता है। अर्थात् जो साधु शिष्योंको ग्रन्थदान और अर्थदान करते थे उन्हें शास्त्राभ्यास कराते थे वे वाचक कहे जाते थे। वाचकशब्दका यौगिक अर्थ तो इतना ही है। श्वेताम्बरसाहित्यमें भी वाचकका यही अर्थ किया है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वाचक एक पद था और वह पद उन आचार्योंको दिया जाता था जो अङ्गों और पूर्वोके पठन पाठनमें रत रहते थे। इन वाचकाचार्योंके द्वारा ही अर्थ और सूत्ररूप प्रवचन शिष्यप्रशिष्यपरम्परासे प्रवाहित होता था। श्वेताम्बरपरम्परामें तो वाचकका अर्थ ही पूर्ववित् रूढ़ होगया है । जो मुनि पूर्वग्रन्थोंका जानकार होता था उसे ही वाचक कहा जाता था। आचार्य गुणधर भी पूर्ववित् थे सम्भवतः इसीलिये वे वाचक कहे जाते थे।
जयधवलामें लिखा है कि गुणधराचार्यके द्वारा रची गई गाथाएं श्राचार्यपरम्परासे आकर आर्यमंच और नागहस्ती आचार्योंको प्राप्त हुई। इन दोनों आचार्योंके मतोंका उल्लेख
जयधवलामें अनेक जगह आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जयधवलाकारके सामने आर्यमक्ष इन दोनों आचार्योंकी कोई कृति मौजूद थी या उन्हें गुरुपरम्परासे इन दोनों आचार्यों के
और मत प्राप्त हुए थे। क्योंकि ऐसा हुए विना निश्चित रीतिसे अमुक अमुक विषयांपर नागहस्ती दोनोंके जुदे जुदे मतोंका इसप्रकार उल्लेख करना संभव प्रतीत नहीं होता। इन
दोनोंमें आर्यमंतु जेठे मालूम होते हैं क्योंकि सब जगह उन्हींका पहले उल्लेख किया गया है। किन्तु जेठे होने पर भी आर्यमंक्षुके उपदेशको अपवाइज्जमाण और नागहस्तीके उपदेशको पवाइज्जमाण कहा है। जो उपदेश सर्वाचार्यसम्मत होता है और चिरकालसे अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रमसे चला आता हुआ शिष्यपरम्पराके द्वारा लाया जाता है वह पत्राइजमाण कहा जाता है। अर्थात् आर्यमंक्षुका उपदेश सर्वाचार्यसम्मत और अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रमसे आया हुआ नहीं था किन्तु नागहस्ती आचार्यका उपदेश सर्वाचार्यसम्मत और अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रमसे चला आया हुआ था। पश्चिमस्कन्धमें एक जगह इसीप्रकार दोनों आचार्योंके मतों का उल्लेख करते हुए जयधवलाकारने लिखा है।
"एत्थ दुहे उवएसा अस्थि त्ति के वि भणंति । तं कथम् ? महावाचयाणमज्जमखुखवणाणमुवदेसेण लोगे पूरिदे पाउगसमं णामागोदवेदणीयाणं ठिदिसंतकम्म ठवेदि। महावाचयाणं णागहत्थिखवणाणमवएसेण लोगे पूरिदे णामागोदवेयणीयाणं ठिदिसंतकम्ममंतोमुत्तपमाणं होदि । होतं पि आउगादो संखेज्जगुणमेत्तं ट्वेदित्ति । णवरि एसो वक्खाणसंपदास्रो चुण्णिसुत्तविरुद्धो। चुण्णि सुत्ते मुत्तकंठमेव संखेज्जगुणमाउआदो ति णिद्दित्तादो। तदो पवाइज्जंतोवएसो एसो चेव पहाणभावेणावलंबेयन्वो ॥" प्रे० का० पृ० ७५८१ ।
अर्थात्-इसविषयमें दो उपदेश पाये जाते हैं। वे उपदेश इसप्रकार हैं-महावाचक आर्यमंच क्षपणके उपदेशसे लोकपूरण करने पर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थितिको आयुके समान करता है। और महावाचक नागहस्ती क्षपणके उपदेशसे लोकपूरण करनेपर नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करनेपर भी आयुसे संख्यातगुणीमात्र करता है। इन दोनों उपदेशोंमेंसे पहला उपदेश चूर्णिसूत्रसे विरुद्ध है क्योंकि
(१) "वायंति सिस्साणं कालियपुव्वसुत्तं ति वायगा प्राचार्या इत्यर्थः । गुरुसण्णिधे वा सीसभावेण वाइतं सुत्तं जेहि ते वायगा।" नं० चू०। “विनेयेभ्यः पूर्वगतं सूत्रमन्यच्च वाचयन्तीति वाचकाः।" नन्दी० हरि० वृ०। (२) "सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमव्वोच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जंतोवएसो त्ति भण्णदे। अथवा अज्जमखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जतवो त्ति घेतव्वो।' प्रे० का० पृ० ५९२० ।
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