Book Title: Kasaypahudam Part 01
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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प्रस्तावना
"वंसणमोह उवसामगस्स परिणामो केरिसो भवे । जोगे कसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥१॥ काणि वा पूव्वबंधाणि के वा अंसे णिबंधदि । कवि भावलियं पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥२॥ के अंसे झीयदे पुग्वं बंधेण उदएण वा । अंतरं वा कहिं किच्चा के के उवसामगो कहिं ।।३।। किं ठिवियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा।
ओवटेतूण सेसाणि कं ठाणं पडिवजदि ॥४॥" पं० जीकी भाषाटीकामें कषायप्राभृतकी उक्त गाथाओंको देखकर हमें यह जाननेकी उत्सुकता हुई कि आचार्य नेमिचन्द्ररचित ग्रन्थों में उक्त गाथाओंके नहीं होते हुए भी पं० जीको ये गाथाएं कहांसे प्राप्त हुई? क्या उन्हें सिद्धान्तग्रन्थोंके अवलोकनका सौभाग्य प्राप्त हुआ था? किन्त संदृष्टि अधिकारके अन्तमें उन्होंने जो ग्रन्थप्रशस्ति दी है उससे तो ऐसा प्रतीत नहीं हुआ; क्योंकि उसमें उन्होंने लब्धिसारकी रचनाके विषयमें वही बात कही है जो संस्कृत टीकाकार केशववर्णी ने लब्धिसारकी गाथाकी उत्थानिकामें कही है। यदि उन्होंने कषायप्राभृतका स्वयं अनुगम करके उक्त गाथाएं दी होती तो वे लब्धिसारकी रचना जयधवलके पन्द्रहवे अधिकारसे न बतलाते । और न सिद्धान्तग्रन्थोंके रचयिताओंके बारेमें यही लिखत
"मुनि भूतबलि यतिवृषभ प्रमुख भए तिनिहूँनै तीन ग्रन्थ कोने सुखकार हैं। प्रथम घबल, अर दूजो है जयधवल तीजो महाधबल प्रसिद्ध नाम धार हैं ॥"
इस प्रकारकी बातेंतो जनश्रुतिके आधार पर ही लिखी जा सकती हैं। अतः हमारी उत्सुकता दूर नहीं हो सकी। अचानक ग्रन्थप्रशस्तिके निम्न छन्दोंपर हमारी निगाह पड़ी
"उपशमणि कथन पर्यन्त, ताकी टीका संस्कृतवंत । देखी देखे शास्त्रनि मांहि, संपूरण हम देखी नाहि ॥२४॥ माधवचन्दयतीकृत प्रन्थ, देख्यो क्षपणासार सुपंथ । संस्कृतधारामय सुखकार क्षपकणि वर्णनयुत सार ॥२५॥ वह टीका यह शास्त्र विचार, तिनिकरि किछू अर्थ अवधार ।
लब्धिसारको टीका करी, भाषामय अर्थन सौं भरी ॥२६॥" पं० टोडरमलजीका कहना है कि लब्धिसारकी संस्कृतटीका उपशमश्रेणिके कथनपर्यन्त ही मुझे प्राप्त हो सकी, संपूर्णटीका प्राप्त नहीं हुई। तब हमने माधवचन्द्रयतिकृत क्षपणासारग्रन्थ देखा, जो संस्कृतमें रचा हुआ था और उसमें आपकणिका वर्णन था। उस ग्रन्थको तथा उपशमश्रेणिपर्यन्तकी संस्कृतटीकाको देखकर हमने लब्धिसारकी यह टीका बनाई ।' यह माधवचन्द्र यति सम्भवतः आचार्यनेमिचन्द्रके शिष्य माधवचन्द्र विद्य ही जान पड़ते हैं। उन्होंने संस्कृत क्षपणासारकी रचना कषायप्राभृत और जयधवलाको देखकर ही की होगी। उसीसे कषायप्राभृतकी उक्त गाथाएं पं० टोडलमलजीने अपनी भाषाटीकामें लीं, ऐसा जान पड़ता है। इस क्षपणासार प्रन्थकी खोज होना आवश्यक है। राजपूतानेके किसी शास्त्रभण्डारमें उसकी प्रति अवश्य होनी चाहिये।
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