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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ 1
(तपागच्छीय) ने अपनी "पट्टावली पराग संग्रह " नामक कृति में पृष्ठ २५५ से ४८२ तक लगभग १२७ पृष्ठों में विशद् प्रकाश डाला है । लब्धप्रतिष्ठ इतिहासज्ञ स्व० पंन्यास श्री द्वारा प्रस्तुत किये गये एतद्विषयक विवरण के कतिपय महत्त्वपूर्ण विचारणीय अंश इतिहास-प्रेमियों के लाभार्थ यहां उद्धत किये जा रहे हैं :
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"वर्तमान काल में खरतरगच्छ तथा अंचलगच्छ की जितनी भी पट्टावलियाँ हैं, उनमें से अधिकांश पर कुलगुरुत्रों की बहियों का प्रभाव है । विक्रम की दशवीं शती तक जैन श्रमणों में शिथिलाचारी साधुत्रों की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि उनके मुकाबले में सुविहित साधु बहुत ही कम रह गये थे । शिथिलाचारियों ने अपने अड्डे एक ही स्थान पर नहीं जमाये थे, उनके बडेरे जहां-जहां फिरे थे, जहां-जहां के गृहस्थों को अपना भाविक बनाया था उन सभी स्थानों में शिथिलाचारियों के अड्डे जमे हुए थे, जहां उनकी पौषध शालाएं नहीं थीं, वहां अपने अड्डों से अपने गुरुनों के भाविकों को सम्हालने के लिये जाया करते थे, जिससे कि उनके पूर्वजों के भक्तों के साथ उनका परिचय बना रहे, गृहस्थ भी इससे खुश रहते थे कि हमारे कुलगुरु हमारी सम्हाल लेते हैं । उनके यहां कोई भी धार्मिक कार्य-प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, संघ आदि का प्रसंग होता, तब वे अपने कुल गुरु को आमन्त्रित करते और धार्मिक विधान उन्हीं के हाथों से करवाते । धीरे-धीरे वे कुलगुरु परिग्रहधारी हुए, वस्त्र पात्र के अतिरिक्त द्रव्य की भेंट भी स्वीकार करने लगे । तब से ( उस युग में यदि ) कोई गृहस्थ अपने कुलगुरु को न बुलाकर दूसरे गच्छ के आचार्य को बुला लेता और प्रतिष्ठा आदि कार्य करवा लेता तो उनका कुलगुरु बना हुआ ग्राचार्य कार्य करने वाले अन्य गच्छीय आचार्य से झगड़ा करना । इस परिस्थिति को रोकने के लिये कुलगुरु ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी से अपने-अपने श्रावकों के लेखे (बहियां ) अपने पास रखने शुरु किये, किस गांव में कौन-कौन गृहस्थ अपना अथवा अपने पूर्वजों का मानने वाला है, उनकी सूचियां बनाकर अपने पास रखने लगे और अमुक-अमुक समय के बाद उन सभी श्रावकों के पास जाकर उनके पूर्वजों की नामावलियाँ सुनाते और उनकी कारकीर्दियों की प्रशंसा करते, तुम्हारे बडेरों को हमारे पूर्वज अमुक प्राचार्य महाराज ने जैन बनाया था, उन्होंने अमुक-अमुक धार्मिक कार्य किये थेइत्यादि बातों से उन गृहस्थों को राजी करके दक्षिणा प्राप्त करते । यह पद्धति प्रारम्भ होने के बाद वे शिथिल साधु धीरे-धीरे साधु मार्ग से पतित हो गये और " कुलगुरु" तथा "बही वंचों" के नाम से पहिचाने जाने लगे । आज पर्यन्त ये कुलगुरु जैन जातियों में बने रहे हैं, परन्तु विक्रम की बीसवीं सदी से वे लगभग सभी गृहस्थ बन गये हैं, फिर भी कतिपय वर्षों के बाद अपने पूर्वज प्रतिबोधित श्रावकों को वन्दाने के लिये जाते हैं, बहियां सुनाते
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