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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
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भी हठाग्रह नहीं किया । उदाहरणस्वरूप लिया जाय तो प्राचारांग सूत्र के चौथे अध्ययन के प्रथम उद्देशक के एक सूत्र को जिसे जैन धर्म की आत्मा अथवा आधार शिला की संज्ञा दी जाती है- जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करते हुए अपने ५८ बोलों में से एक बोल में उस ओर इंगित भर किया कि-'षड्जीव निकाय के किसी भी जीव की किसी भी कारण से निज की स्वार्थ सिद्धि के लिए और यहां तक कि मोक्ष की प्राप्ति के लिये भी हिंसा न की जाय-किसी जीव को किसी भी प्रकार का किचित्मात्र भी कष्ट न पहुंचाया जाय यह मैं (श्रमण भगवान महावीर) कहता हूं । अनादि अतीत के सभी तीर्थंकरों ने यही कहा है । वर्तमान में जितने तीर्थंकर हैं वे भी यही कहते हैं और अनागत अनन्त काल में जो अन्य तीर्थकर होने वाले हैं वे भी यही कहेंगे । यही शुद्ध-सत्य शाश्वत आर्य धर्म है।"
लोकाशाह ने अपनी ओर से एक भी शब्द नहीं जोड़ा। लोंकाशाह से ५६ वर्ष पश्चात हए पागम मर्मज्ञ, प्रागमों पर टब्बों को रचना करने वाले पार्श्वचन्द्रसूरि ने भी अपनी “उत्सूत्र तिरस्कार नामा-विचार पट:' नामक कृति में केवल इस सूत्र का ही उल्लेख नहीं किया है, अपितु लोकाशाह से बहुत आगे बढ़ कर इस सम्बन्ध में तो यहां तक लिखा है कि :
बुड्ढं जज्जर थेरं, जो घायइ जमल मुट्ठिणा तरुणो । जारिसी तस्स वेयणा, एगिदी संघट्टणे तारिसी ।।
अर्थात्-जराजर्जरित अति जीर्ण-शीर्ण अतिवृद्ध पुरुष के वक्षस्थल पर यदि कोई विशिष्ट बलशाली यवा पुरुष अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर मुष्टि का प्रहार करे तो उस मुष्टि प्रहार से जिस प्रकार की दुस्सह दारुण पीड़ा उस जराजर्जरित वृद्ध व्यक्ति को होती है, ठीक उसी प्रकार की भीषण वेदना स्थावर काय के एकेन्द्रिय जीव को, उसके संघट्ट मात्र से स्पर्श मात्र से होती है।
किसी भी एकेन्द्रियादि जीव की हिंसा करते समय में उसे किस प्रकार की पीड़ा होती है, इसका पागम में स्पष्ट वर्णन मिलता है कि जिस प्रकार एक जन्मजात गंगे, बहरे, हलन-चलन में नितान्त अक्षम व्यक्ति को भाले की तीक्ष्ण नोंक से छेदा या भेदा जाय तो वह बोल नहीं सकेगा, चीख पुकार नहीं कर सकेगा, हिलडुल नहीं सकेगा तथापि उसे छेदन भेदन की क्रिया से पीड़ा तो उसी प्रकार की दुस्सह्य और दारुणतम होगी जिस प्रकार की कि एक सर्वेन्द्रिय सम्पन्न स्वस्थ व्यक्ति को इस प्रकार की क्रिया से होती है। इस भांति की वेदना एकेन्द्रिय जीव को भी छेदन भेदन प्रादि दुःख-दायिनी क्रिया से होती है। द्वादशांगी के प्रथमांग प्राचारांग सूत्र के जीव हिंसा निषेधार्थक सूत्रों के सन्दर्भ में "बुड्ढं जज्जर थेरं" इस गाथा का अर्थ किया जाय तो इससे भी यही भाव प्रकट होता है कि केवल संघट्ट मात्र से स्थावर काय के. एकेन्द्रिय जीव को दुस्सह्य दारुण वेदना होती है
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