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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
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"उत्सूत्र तिरस्कार नामा-विचार पटः" को पढ़कर तो वस्तुतः बड़ा ही आश्चर्य होगा कि उसमें तत्कालीन श्रमणवर्ग द्वारा प्रतिदिन अपने आचरण में लाई गई अनागमिक एवं श्रमणत्व का समूलोच्छेद करने वाली दुष्प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में संघाध्यक्षों एवं गच्छाधिपतियों से जो प्रश्न किये हैं, उनकी शैली भी लोंकाशाह की ५८ बोल आदि ऐतिहासिक कृतियों की शैली के ही अनुरूप है।
इस प्रकार महान् धर्मोद्धारक एवं अभिनव धर्मक्रांति के सूत्रधार धर्मप्राण लोकाशाह के विरुद्ध अनेक प्रकार के मिथ्या प्रचार एवं अनेक प्रकार के षड्यन्त्र किये गये किन्तु किसी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी "सूर्य लम्बे समय तक बादलों में छपा नहीं रह सकता" इस लोकोक्ति को चरितार्थ करती हई उनके द्वारा अभिसूत्रित क्रान्ति का तीव्र प्रवाह जैन धर्म संघ में व्याप्त विभिन्न प्रकार की विकृतियों को साफ करता हुआ आगे की ओर बढ़ता ही गया। जिसके लिए जैन धर्मावलम्बी लोकाशाह के प्रति सदा-सदा कृतज्ञ रहेंगे।
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