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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- भाग ४
है तो वह संसारी जीवों को पीड़ा पहुंचाकर, प्राणियों की हिंसा कर उस घोर पाप का अर्जन करे जो दारुण दुःखों की निधान विविध योनियों में प्राणी को भटकाने वाला है।
पर लोंकाशाह ने तो पवित्र जैनागमों में गणधरों द्वारा निबद्ध वीतराग वाणी को ही अक्षरशः दोहराते हुए जैन जगत् के जन-जन के समक्ष सर्वज्ञ-सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर के संदेश को रखा-"किसी भी प्राणी की, किसी भी जीव की, किसी भी दशा में कभी हिंसा न की जाय, उसे किसी भी प्रकार का कष्ट न पहंचाया जाय, यही सच्चा, शुद्ध और शाश्वत धर्म है । यदि कोई व्यक्ति स्वयं के अथवा अपने आश्रितों के परिपोषण के लिये, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा के लिए और यहां तक कि जन्म-जरा-मृत्यु से छुटकारा पाने स्वरूप मोक्ष पद की प्राप्ति के लिए भी पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति इन पांच स्थावरकाय के एकेन्दिय जीव की भी हिंसा करता है, उसे किसी प्रकार का कष्ट पहंचाता है तो वहपाप उसके लिये अहितकर है, वह कभी बोधि (सम्यक्त व-सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग् चारित्र रूपी रत्नत्रयी) प्राप्त नहीं कर सकता और उस पाप के परिणामस्वरूप अनन्तकाल तक दुस्सह्य दारुण दुःखों को भोगता हुआ संसार में भटकता रहता है । सुस्पष्ट शब्दों में इस प्रकार फरमाते समय श्रमण भगवान महावीर ने सम्पूर्ण आगमों में कहीं पर भी यह नहीं कहा कि यदि धर्म कार्य के निष्पादन के लिए पंच स्थावरकाय में से किसी भी प्राणी की हिंसा की जाय तो उस प्रकार की हिंसा "हिंसा' की गणना अथवा कोटि में नहीं आवेगी।"
इसी प्रकार के धर्म के सच्चे स्वरूप को प्रकट करने वाले और विश्वकल्याणकारी जैन धर्म के शाश्वत सत्य विशुद्ध स्वरूप में किसी भी प्रकार के विकार के प्रवेश का कोई भी अवकाश अवशिष्ट न रखने वाले, तीर्थकर प्रभु महावीर के आगमों में निबद्ध प्राणिमात्र के लिये हितकारी बहुत से संदेशों को चतुर्विध जैन संघ के सभी सदस्यों के समक्ष वर्तमान में उपलब्ध १३ प्रागमिक प्रश्नों, ३४ बोलों, ५८ बोलों और परम्परा विषयक ५४ प्रश्नों तथा साम्प्रत काल में अनुपलब्ध किन्तु रामा कर्ण वेधी की ३२६ पृष्ठों की वृहदाकार “लुम्पक वृहद् हुण्डी" नामक रचना में संकेत रूपेण सूचित अपनी संभावित अन्यान्य कृतियों एवं अनुमानित अमित उपदेशों के माध्यम से लोंकाशाह ने रखा।
तपागच्छ आदि अनेक गच्छों की पट्टावलियों में उपलब्ध प्रतिमोत्थापक मत की स्थापना विषयक उल्लेखों से यह तो निर्विवाद रूपेण सिद्ध हो जाता है कि लोकाशाह ने जैन धर्म के मूल विशुद्ध आगमिक स्वरूप में शताब्दियों पूर्व प्रविष्ट कराये गये विकारों को दूर करने के लक्ष्य से विक्रम संवत् १५०८ में एक अभियान प्रारम्भ कर दिया था, धर्मोद्धार हेतु एक शीत क्रांति का सूत्रपात कर दिया था। इसी ग्रन्थमाला में प्रस्तुत किये जा रहे चतुर्थ भाग के ६४२ से ६४६ पृष्ठों पर छपे
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