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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
उन्हें शिवंकर, शान्तिकर एवं सभी भांति से सहायक अथवा रक्षक बने रहने की प्रार्थना किये जाने के उल्लेखों को देख कर तो यही आभास होता है कि किसी भी जैनेतर परम्परा के कर्मकाण्ड विषयक ग्रन्थों से चुन-चुन कर, छांट-छांट कर अथवा टीप-टीप कर इस "निर्वाणकलिका" नाम्नी कृति का संकलनात्मक निर्माण किया गया है और इसे पादलिप्त प्राचार्य के नाम पर चढ़ा दिया गया है ।
इतरेतर परम्पराओं के कर्मकाण्डियों तथा शाक्त भैरव आदि परम्पराओं के तान्त्रिकों का अन्धानुकरण करते समय 'निर्वाण कलिका' के जन्मदाता ने संभवतः - "नकल में आकिल को भी अक्ल का इस्तेमाल करने की क्या जरूरत है" इस लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए यह नहीं सोचा कि नर-नरेन्द्रों, देव-देवेन्द्रों द्वारा वन्दनीय-पूजनीय जगद्वन्ध प्राचार्य पद पर अधिष्ठित पंच महाव्रतधारी श्रमणशिरोमणि प्रतिष्ठाचार्य के शरीर पर, अंग-प्रत्यंग पर सुहागिन स्त्रियों के हाथों से तैलमर्दन, अभ्यंग आदि करवाने, प्रतिष्ठाचार्य के कर में स्वर्णकंकण तथा करांगुलि में स्वर्णमुद्रिका धारण करवाने, उनके (प्रतिष्ठाचार्य के) हाथों धूप, दीप करवाने, पुष्पफल चढ़ाने, तीर्थों, गंगा आदि पवित्र नदियों के जल से भरे कलश से इन्द्र को स्नान करवाने, उन प्रतिष्ठाचार्य को छत्र, चामर, हस्ति, अश्व, शिबिका आदि राजचिह्न, योगपट्टक, खटिका, पुस्तक, अक्षसूत्र आदि विपुल परिग्रह का स्वामी बनाने तथा जगद्वन्द्य आचार्य पद पर अधिष्ठित प्रतिष्ठाचार्य के मुख से ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम, रुद्र, भैरव आदि देवों के लिये "नमः" शब्द का उच्चारण करवाने आदि से कहीं सम्पूर्ण श्रमण संस्कृति को ही पलीता लगाने तुल्य प्रयास तो वे नहीं कर रहे हैं ? शाक्त, भैरव आदि तान्त्रिक परम्पराओं में किसी सन्यासी का चारुहासिनी, चन्द्रमुखी, मृगलोचनी सुहागिन स्त्रियों द्वारा तैल, अभ्यंग मर्दन स्नान आदि का उल्लेख केवल उन परम्पराओं के कल्पों में ही मिल सकता है, अन्यत्र नहीं। भर्तृहरि ने तो, घोरातिघोर दुश्चर तपश्चरण द्वारा अपने तन को सुखाकर कंकालमात्रावशिष्ट कर देने वाले योगियों, मुनियों एवं सन्यासियों के लिये स्त्री सम्पर्क को हलाहल विषतुल्य बताते हुए कहा है :
विश्वामित्र परासरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनाः, तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगता । शाल्यन्नं दधिमिश्रितं घृतयुतं भुंजन्ति ये मानवाः,
तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेत् विन्द्यस्तरेत् सागरम् ।।
जैन संस्कृति में किसी भी छोटे से लेकर बड़े से बड़े श्रमणोत्तम के लिये स्त्रियों के हाथों से तैलाभ्यंगमर्दन, स्नान आदि की बात तो बहुत दूर, किसी भी दशा में स्त्री जाति का स्पर्श तक और तैलाभ्यंग स्नान आदि विषवत् वयं बताया गया है । किसी भी श्रमण के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महा
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